कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 38 प्रेमचन्द की कहानियाँ 38प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग
चचाजी ने लापरवाही से कहा, 'अजी, यह वही महाशय हैं, जो तुम्हारे ब्याह के लिए घेरे हुए हैं। शहर के रईस और कुलीन आदमी हैं। लड़की भी बहुत अच्छी है। कम-से-कम तारा से कई गुनी अच्छी। मैंने हाँ कर लिया है। तुम्हें भी जो बातें पूछनी हों, उनसे पूछ लो।'
मैंने आवेश के उमड़ते हुए तूफान को रोककर कहा, 'आपने नाहक हाँकी। मैं अपना विवाह नहीं करना चाहता।'
चचाजी ने मेरी तरफ आँखें फाड़कर कहा, 'क्यों?'
मैंने उसी निर्भीकता से जवाब दिया- 'इसीलिए कि मैं इस विषय में स्वाधीन रहना चाहता हूँ।'
चचा साहब ने जरा नर्म होकर कहा, 'मैं अपनी बात दे चुका हूँ, क्या तुम्हें इसका कुछ खयाल नहीं है?'
मैंने उद्दण्डता से जवाब दिया- 'जो बात पैसों पर बिकती है, उसके लिए मैं अपनी जिन्दगी नहीं खराब कर सकता।'
चचा साहब ने गम्भीर भाव से कहा, 'यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?'
'जी हाँ, आखिरी।'
'पछताना पड़ेगा।'
'आप इसकी चिन्ता न करें। आपको कष्ट देने न आऊँगा।'
'अच्छी बात है।'
यह कहकर वह उठे और अन्दर चले गये। मैं कमरे से निकला और बैरक की तरफ चला। सारी पृथ्वी चक्कर खा रही थी, आसमान नाच रहा था और मेरी देह हवा में उड़ी जाती थी। मालूम होता था, पैरों के नीचे की जमीन है ही नहीं। बैरक में पहुँचकर मैं पलंग पर लेट गया और फूट-फूटकर रोने लगा। माँ-बाप, चाचा-चाची, धन-दौलत, सबकुछ होते हुए भी मैं अनाथ था। उफ ! कितना निर्दय आघात था !
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