कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
दोनों भाई चौंक पड़े। उन्हें विवाह की उमंग में यह सुधि ही नहीं थी कि घर में क्या हो रहा है। शानसिंह ने कहा- तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ क्यों नहीं कहते।
एक ठाकुर ने जवाब दिया- साफ-साफ क्या कहलाते हो। इस शोहदे ललनसिंह का अपने यहाँ आना-जाना बंद कर दो, तुम तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे ही हो, पर उसकी जान की कुशल नहीं। हमने अभी तक इसीलिए तरह दिया है कि कदाचित् तुम्हारी आँखें खुलें, किंतु ज्ञात होता है कि तुम्हारे ऊपर उसने मुर्दे का भस्म डाल दिया है। ब्याह क्या अपनी आबरू बेच कर करोगे? तुम लोग खेत में रहते हो और हम लोग अपनी आँखों से देखते हैं कि वह शोहदा अपना बनाव-सँवार किये आता है और तुम्हारे घर में घंटों घुसा रहता है। तुम उसे अपना भाई समझते हो तो समझा करो, हम तो ऐसे भाई का गला काट लें जो विश्वासघात करे।
भाइयों के नेत्रपट खुले। दूजी के ज्वर के सम्बन्ध में जो ज्वर का संदेह था, वह प्रेम का ज्वर निकला। रुधिर में उबाल आया। नेत्रों में चिनगारियाँ उड़ीं। तेवर बदले। दोनों भाइयों ने एक दूसरे की ओर क्रोधमय दृष्टि से देखा। मनोगत भाव जिह्वा तक न आ सके। अपने घर आये; किंतु दर पर पाँव रखा ही था कि ललनसिंह से मुठभेड़ हो गयी।
ललनसिंह ने हँस कर कहा- वाह भैया ! वाह ! हम तुम्हारी खोज में बार-बार आते हैं, किन्तु तुम्हारे दर्शन तक नहीं मिलते। मैंने समझा, आखिर रात्रि में तो कुछ काम न होगा। किन्तु देखता हूँ, आपको इस समय भी छुट्टी नहीं है।
शानसिंह ने हृदय के भीतर क्रोधाग्नि को दबा कर कहा- हाँ, इस समय वास्तव में छुट्टी नहीं है।
ललनसिंह- आखिर क्या काम है? मैं भी सुनूँ।
शानसिंह- बहुत बड़ा काम है, आपसे छिपा न रहेगा।
ललनसिंह- कुछ वस्त्राभूषण का भी प्रबंध कर रहे हो? अब लग्न सिर पर आ गया है।
शानसिंह- अब बड़ा लग्न सिर पर आ पहुँचा है, पहले इसका प्रबंध करना है।
ललनसिंह- क्या किसी से ठन गयी?
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