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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


दूजी ने निराशा की दशा में संसार से विमुख होकर जीवन व्यतीत करना जितना सहज समझा था, उससे कहीं कठिन मालूम हुआ। आत्मानुराग में निमग्न वैरागी तो वन में रह सकता है, परंतु एक स्त्री जिसकी अवस्था हँसने-खेलने में व्यतीत हुई हो, बिना किसी नौका के सहारे विराट सागर को किस प्रकार पार करने में समर्थ हो सकती है? दो वर्ष के पश्चात् दूजी को एक-एक दिन वहाँ वर्ष-सा प्रतीत होने लगा। कालक्षेप करना दुस्तर हो गया। घर की सुधि एक क्षण भी विस्मृत न होती। कभी-कभी वह इतनी व्यग्र होती कि क्षणमात्र के लिए अपमान का भी भय न रहता। वह दृढ़ विचार करके उन पहाड़ियों के बीच शीघ्रता से पग बढ़ाती, घर की ओर चलती, मानो कोई अपराधी कारागार से भागा जा रहा हो। किन्तु पहाड़ियों की सीमा से बाहर आते ही उसके पग स्वयं रुक जाते। वह आगे न बढ़ सकती। तब वह ठंडी साँस भर कर एक शिला पर बैठ जाती और फूट-फूट कर रोती। फिर वह भयानक रात्रि और वही सघन कुंज, वही नदी की भयावनी गरज और शृगालों की वही विकराल ध्वनि !

ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय

भाग्य को धिक्कारते-धिक्कारते उसने ललनसिंह को धिक्कारना आरम्भ किया। एकातंवास ने उसमें आलोचना और विवेचना की शक्ति पैदा कर दी। मैं क्यों इस वन में मुँह छिपाये दुःख के दिन व्यतीत कर रही हूँ? यह उसी निर्दयी ललनसिंह की लगायी आग है। कैसे सुख से रहती थी। इसी ने आकर मेरे झोंपड़े में आग लगा दी। मैं अबोध और अनजान थी। उसने जान-बूझ कर मेरा जीवन भ्रष्ट कर डाला। मुझे अपने आमोद का केवल एक खिलौना बनाया था। यदि उसे मुझसे प्रेम होता तो क्या वह मुझसे विवाह न कर लेता? वह भी तो चंदेल ठाकुर था। हाय ! मैं कैसी अज्ञान थी। अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारी। इस प्रकार मन से बातें करते-करते ललनसिंह की मूर्ति उसके नेत्रों के सम्मुख आ जाती तो वह घृणा से मुँह फेर लेती। वह मुस्कराहट जो उसका मन हर लिया करती थी, वह प्रेममय मृदुभाषण जो उसकी नसों में सनसनाहट पैदा कर देती थी, वह क्रीड़ामय हाव-भाव जिन पर मतवाली हो जाती थी, अब उसे एक दूसरे ही रूप में दृष्टिगोचर होते। उनमें अब प्रेम की झलक न थी। अब वह कपट-प्रेम और काम-तृष्णा के गाढ़े रंग में रँगे हुए दिखायी देते थे। वह प्रेम का कच्चा घरौंदा, जिसमें वह गुड़िया बन बैठी थी, वायु के झोंके में सँभला; किन्तु जल के प्रबल प्रवाह में न सँभल सका। अब वह अभागी गुड़िया निर्दयी चट्टान पर पटक दी गयी है कि रो-रोकर जीवन के दिन काटे। उन गुड़ियों की भाँति जो गोटे-पट्टे और आभूषणों से सजी हुई, मखमली पिटारे में भोग-विलास करने के पश्चात् नदी और तालाब में बहा दी जाती हैं, डूबने के लिए तरंगों में थपेड़े खाने के लिए।

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