कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
कुँवर साहब विस्मित हो गये। चौदह वर्ष और नदी के किनारे गुफा में। क्या कोई संन्यासी इससे अधिक त्याग कर सकता है। वह आश्चर्य से कुछ न बोल सके।
दूजी उन्हें चुपचाप देख कर बोली- मैं कैलासी के घर से सीधे पर्वत में चली गयी और वहीं इतने दिन व्यतीत किये। चौदह वर्ष पूरे हो गये। जिन भाइयों की गरदन पर छुरी चलायी उनके छूटने के दिन अब आये हैं। नारायण उन्हें अब कुशलपूर्वक लावें। मैं चाहती हूँ कि उनके दर्शन करूँ और उनकी ओर से मेरे दिल में जो इच्छाएँ हैं पूर्ण हो जायँ।
कुँवर साहब बोले- तुम्हारा हिसाब बहुत ठीक है। मेरे पास आज कलकत्ते से सरकारी पत्र आया है कि दोनों भाई चौदह तारीख को कलकत्ता पहुँचेंगे, उनके सम्बन्धियों को सूचना दी जाय। यहाँ कदाचित् दो-तीन दिन में आ जायेंगे। मैं सोच ही रहा था कि सूचना किसे दूँ।
दूजी ने विनयपूर्वक कहा- मेरा जी चाहता है कि वे जहाज पर से उतरें तो मैं उनके पैरों पर माथा नवाऊँ, उसके पश्चात् मुझे संसार में कोई अभिलाषा न रहेगी। इसी लालसा ने मुझे इतने दिनों तक जिलाया है। नहीं तो मैं आपके सम्मुख कदापि न खड़ी होती।
कुँवर विनयकृष्ण गम्भीर स्वभाव के मनुष्य थे। दूजी के आंतरिक रहस्य उनके चित्त पर एक गहरा प्रभाव डालते जाते थे। जब सारी अदालत दूजी पर हँसती थी तब उन्हें उसके साथ सहानुभूति थी और आज इसके वृत्तांत सुन कर वे इस ग्रामीण स्त्री के भक्त हो गये। बोले- यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं स्वयं तुम्हें कलकत्ता पहुँचा दूँगा। तुमने उनसे मिलने की जो रीति सोची है उससे उत्तम ध्यान में नहीं आ सकती; परंतु तुम खड़ी हो और मैं बैठा हूँ, यह अच्छा नहीं लगता दूजी, मैं बनावट नहीं करता; जिसमें इतना त्याग और संकल्प हो वह यदि पुरुष है तो देवता है, स्त्री है तो देवी है। जब मैंने तुम्हें पहले देखा उसी समय मैंने समझ लिया था कि तुम साधारण स्त्री नहीं हो। जब तुम कैलासी के घर से चली गयीं तो सब लोग कहते थे कि तुम जान पर खेल गयीं। परंतु मेरा मन कहता था कि तुम जीवित हो। नेत्रों से पृथक् हो कर भी तुम मेरे ध्यान से बाहर न हो सकीं। मैंने वर्षों तुम्हारी खोज की, मगर तुम ऐसी खोह में जा छिपी थीं कि तुम्हारा कुछ पता न चला।
इन बातों में कितना अनुराग था ! दूजी को रोमांच हो गया। हृदय बल्लियों उछलने लगा। उस समय उसका मन चाहता था कि इनके पैरों पर सिर रख दूँ। कैलासी ने एक बार जो बात उससे कही थी, वह बात उसे इस समय स्मरण आयी। उसने भोलेपन से पूछा- क्या आप ही के कहने से कैलासी ने मुझे अपने घर में रख लिया था?
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