कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
सिंगार संपन्न बाप का बेटा था, बड़ा ही अल्हड़, बड़ा ही जिद्दी, बड़ा ही आराम पसंद। दृढ़ता या लगन उसे छू भी नहीं गई थी। उसकी माँ उसके बचपन ही में मर चुकी थी और बाप ने उसके पालने में नियंत्रण की अपेक्षा स्नेह से ज्यादा काम लिया था। उसे कभी दुनिया की हवा नहीं लगने दी। उद्योग भी कोई वस्तु है, यह वह जानता ही न था। उसके महज इशारे पर हर एक चीज़ सामने आ जाती थी। वह जवान बालक था, जिसमें न अपने विचार थे, न सिद्धांत। कोई भी आदमी उसे बड़ी आसानी से अपने कपट-बाणों का निशाना बना सकता था। मुख्तारों और मुनीमों के दाँव-पेंच समझना उसके लिए लोहे के चने चबाना था। उसे किसी ऐसे समझदार और हितैषी मित्र की जरूरत थी, जो स्वार्थियों के हथकंडों से उसकी रक्षा करता रहे। दयाकृष्ण पर इस घर के बड़े-बड़े एहसान थे। उस दोस्ती का हक अदा करने के लिए उसका आना आवश्यक था।
मुँह-हाथ धोकर सिंगारसिंह के घर पर ही भोजन करने का इरादा करके दयाकृष्ण उससे मिलने चला। नौ बज गए थे और हवा और धूप में गर्मी आने लगी थी।
सिंगारसिंह उसकी खबर पाते ही बाहर निकल आया। दयाकृष्ण उसे देखकर चौंक पड़ा। लंबे-लंबे केशों की जगह उसके सिर पर घुँघराले बाल थे (वह सिक्स था), आड़ी माँग निकाली हुई। आँखों में न आँसू थे, न शोक का कोई दूसरा चिन्ह, चेहरा कुछ जर्द अवश्य था; पर उस पर विलासिता की मुस्कराहट थी। वह एक महीन रेशमी कमीज़ और मखमली जूते पहने हुए था; मानो किसी महफ़िल से उठा आ रहा हो। संवेदना के शब्द दयाकृष्ण के ओठों तक आकर निराश लौट गए। वहाँ बधाई के शब्द ज्यादा अनुकूल प्रतीत हो रहे थे।
सिंगारसिंह लपककर उसके गले से लिपट गया और बोला- ''तुम खूब आए यार, इधर तुम्हारी बहुत याद आ रही थी; मगर पहले यह बतला दो, वहाँ का कारोबार वंद कर आए या नहीं? अगर वह झंझट छोड़ आए हो, तो पहले उसे तिलांजलि दे आओ। अब आप यहों से जाने न पाएँगे। मैंने तो भई अपना कैंप बदल दिया। बताओ, कब तक तपस्या करता। अब तो आए-दिन जलसे होते हैं। मैंने सोचा यार, टुनिया में आए तो कुछ दिन सैर-सपाटे का आनंद भी उठा लो। नहीं एक दिन यों ही हाथ मलते चले जावेंगे। कुछ भी साथ न जाएगा।''
दयाकृष्ण विस्मय से उसके मुँह की ओर ताकने लगा। यह वही सिंगार है या कोई और! बाप के मरते ही इतनी तब्दीली!
दोनों मित्र कमरे में गए और सोफे पर बैठे। सरदार साहब के सामने इस कमरे में फर्श और मसनद की अमलदारी थी। अब दर्जनों गद्देदार सोफ़े और कुरसियाँ हैं, कालीन का फर्श है, रेशमी परदे हैं, बड़े-वड़े आईने हैं। सरदार साहब को संचय की धुन थी, सिंगार को उड़ाने की धुन है। सिंगार ने एक सिगार जलाकर कहा- ''तेरी वहुत याद आती थी यार, तेरी जान की कसम।''
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