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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


दया ने पूछा- ''यह लत इन्हें कैसे पड़ गई? यह बातें तो इनमें न थीं।''

लीला ने व्यथित स्वर में कहा- ''रुपए की बलिहारी है और क्या; इसीलिए तो बूढ़े मर-मर के कमाते हैं और मरने के बाद लड़कों के लिए छोड़ जाते हैं। अपने मन में समझते होंगे, हम लड़कों के लिए बैठने का ठिकाना किए जाते हैं। मैं कहती हूँ तुम उनके सर्वनाश का सामान किए जाते हो, उनके लिए जहर बोए जाते हो। पापा ने लाखों रुपए की संपत्ति न छोड़ी होती, तो आज यह महाशय किसी काम में लगे होते, कुछ घर की चिंता होती, कुछ जिम्मेदारी होती, नहीं तो वैंक से रुपए निकाले और उड़ाए। अगर मुझे विश्वास होता, कि संपत्ति समाप्त करके वह सीधे मार्ग पर आ जाएँगे, तो मुझे जरा भी, दुःख न होता; पर मुझे तो यह भय है कि ऐसे लोग फिर किसी काम के नहीं रहते या तो जेलखाने में मरते हैं या अनाथालय में। आपकी एक वेश्या से आशनाई है। माधुरी नाम हैं और वह इन्हें उल्टे छुरे से मूँड रही है, जैसा उसका धर्म है। आपको यह भ्रम हो गया है कि वह मुझ पर जान देती है। उससे विवाह का प्रस्ताव भी किया जा चुका है। मालूम नहीं, उसने क्या जवाब दिया। कई बार जी में आया कि जब यहाँ किसी से कोई नाता ही नहीं है, तो अपने घर चली जाऊँ; लेकिन डरती हूँ कि तब तो यह और भी स्वतंत्र हो जाएँगें मुझे किसी पर विश्वास है, तो वह तुम हो; इसीलिए तुम्हें बुलाया था, कि शायद तुम्हारे समझाने-बुझाने का कुछ असर हो; अगर तुम भी असफल हुए, तो मैं एक क्षण यहाँ न रहूँगी। भोजन तैयार है, चलो कुछ खा लो।''

दयाकृष्ण ने सिंगारसिंह की ओर संकेत करके कहा- ''और यह?''

''यह तो अब कहीं दो-तीन बजे चेतेंगे।''

''बुरा मानेंगे।''

''मैं अब इन बातों की परवाह नहीं करती। मैंने तो निश्चय कर लिया है, कि अगर मुझे कभी आखें दिखाई तो मैं भी इन्हें मज़ा चखा दूँगी। मेरे पिताजी फ़ौज में सूबेदार मेजर हैं। मेरी देह में उनका रक्त है।''

लीला की मुद्रा उत्तेजित हो गई। विद्रोह की वह आग जो महीनों से पड़ी सुलग रही थी, प्रचंड हो उठी।

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