कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
जानकी- ''खैर कुछ भी हो, तुम एक पत्र लिखकर सेक्रेटरी के पद से तुरंत इस्तीफ़ा दे दो।''
दया- ''यह तो मुझसे न होगा।''
जानकी- ''पिता का पुत्र पर अधिकार मानते हो या नहीं?''
दया- ''मानता हूँ और यही कारण है कि अब तक मैं राजनीतिक कामों से दूर भागता रहा हूँ किंतु अब देश में जागृति फैल रही है, अकर्मण्यता का समय नहीं है। इस समय तटस्थ बैठे रहना अपने देशवासियों पर घोर अत्याचार होगा।''
जानकी- ''अच्छी बात है, तुम्हारा जो जी चाहे करो। तुम्हारे कहने से मुझे ज्ञात हुआ कि अब मुझे तुम्हारी बातों में बोलने का अधिकार नहीं है, लेकिन अपने दरवाजे पर पुलिस को रोज खड़े देखना मेरी सहनशक्ति के बाहर है। तुम्हें यदि राजनीतिक फुलझड़ियाँ छोड़नी हैं तो मेरे घर से दूर छोड़ो, इसमें आग न लगाओ।''
दयानाथ ने अपने पिता से ऐसी निठुर बातें कभी नहीं सुनी थीं। ये कठोर शब्द उनके हृदय में चुभ गए। बोले- ''जैसी आपकी इच्छा!'' यह कहकर दयानाथ घर में गए और अपनी पत्नी श्यामा से बोले- ''दादाजी ने आज मुझे घर से निकल जाने की आज्ञा दी है। अब अपना बोरिया-बँधना सँभालो। मैं दूसरा मकान ढूँढने जा रहा हूँ।''
श्यामा ने विस्मित होकर पूछा- ''यह किस बात पर?''
दया- ''कुछ नहीं, मैं आज स्वराज्य-सभा में चला गया था। उसी के संबंध में पूछ-ताछ करने के लिए शहर कोतवाल यहाँ आए थे। दादा साहब इसमें अपनी मान-हानि समझते हैं। वे कहते हैं, या तो होमरूल को त्यागो या मेरे घर से निकलो। मुझे होमरूल इस घर से कहीं प्रिय है। मेरी रात आज किसी दूसरे घर में कटेगी। कदाचित् मेरा बोझ उन्हें अब अखरने लगा है, नहीं तो वे इस तरह मुझे घर से निकलने का हुक्म न देते। मैं जब तक लौटकर आता हूँ तुम असबाब ठीक कर रखना।''
श्यामा ने कहा- ''तुम्हारा सामान तो बाहर ही है।''
दया- ''और तुम्हारा?''
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