कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
दयाकृष्ण उसके सफाचट चेहरे की शोर देखकर मुसकिराया- ''तुम्हारी मूँछें तो पहले ही मुँड चुकी हैं।''
इस हलके से विनोद ने जैसे सिंगारसिंह के घाव पर मरहम रख दिया। वह बेसरो-सामान घर, वह फटा फर्श, वह टूटी-फूटी चीजें देखकर उसे दयाकृष्ण पर दया आ गई। चोट की तिलमिलाहट में वह जवाब देने के लिए ईंट-पत्थर ढूँढ रहा था; पर अव चोट ठंडी पड़ गई थी और दर्द घनीभूत हो रहा था और दर्द के साथ सौहार्द भी जाग रहा था। जब आग ही बुझ गई, तो धुआँ कहाँ से होता।
उसने पूछा- ''सच कहना, तुमसे भी कभी प्रेम की वात करती थी?''
दयाकृष्ण ने मुसकिराते हुए कहा- ''मुझसे! मैं तो खाली उसकी सूरत देखने जाता था।''
''सूरत देखकर दिल पर क़ाबू तो नहीं रहता।''
''यह तो अपनी-अपनी रुचि है।''
''है मोहिनी, देखते ही कलेजे पर छुरी चल जाती है।''
''मेरे कलेजे पर तो कभी छुरी नहीं चली। यही इच्छा होती थी, कि इसके पैरों पर गिर पड़ूँ।''
''इसी शायरी ने तो यह अनर्थ किया। तुम-जैसे बुक्षुओं को किसी देहातिन से शादी करके रहना चाहिए। चले थे वेश्या से प्रेम करने!''
एक क्षण के बाद उसने फिर कहा- ''मगर है बेवफ़ा, मक्कार!''
''तुमने उससे वफ़ा की आशा की, मुझे तो यही अफ़सोस है।''
''तुमने वह दिल ही नहीं पाया, तुमसे क्या कहूँ।''
एक मिनट के बाद उसने सहृदय भाव से कहा- ''अपने पत्र में उसने बातें तो सच्ची लिखी हैं, चाहे कोई माने या न माने। सौंदर्य को बाज़ारी चीज़ समझना कुछ बहुत अच्छी बात तो नहीं है।''
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