कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
सिंगारसिंह अपने भीतर वाले कमरे में बैठा हुआ पेग-पर-पेग चढ़ा रहा था; पर अंदर की आग न शांत होती थी। इस आग ने ऊपर की घास-फूस को जलाकर भस्म कर दिया था और अब अंतस्तल की जड़-विरक्ति और अचल विचार को द्रवित करके बड़े वेग से ऊपर फेंक रही थी। माधुरी की बेवफ़ाई ने उसके आमोदी हृदय को इतना आहत कर दिया था कि अब अपना जीवन ही उसे बेकार-सा मालूम होता था। माधुरी उसके जीवन में सबसे सत्य वस्तु थी, सत्य भी और सुंदर भी। उसके जीवन की सारी रेखाएँ इसी बिंदु पर आकर जमा हो जाती थीं। वह बिंदु एकाएक पानी के बुलबुले की भाँति मिट गया और अब वह सारी रेखाएँ, वह सारी भावनाएँ, वह सारी मृदु स्मृतियाँ, उन झल्लाई हुई मधु-मक्खियों की तरह भनभनाती फिरती थीं, जिनका छत्ता जला दिया गया हो। जब माधुरी ने कपट-व्यवहार किया तो और किससे कोई आशा की जाए? इस जीवन ही में क्या है? आम में रस ही न रहा, तो गुठली किस काम की? लीला कई दिन से महफ़िल में सन्नाटा देखकर चकित हो रही थी। उसने कई महीनों से घर के किसी विपय में बोलना छोड़ दिया था। बाहर से जो आदेश मिलता था, उसे बिना कुछ कहे-सुने पूरा करना ही उसके जीवन का क्रम था। वीतराग-सी हो गई थी। न किसी शौक से वास्ता था, न सिंगार से।
मगर इस कई दिन के सन्नाटे ने उसके उदास मन को भी चिंतित कर दिया। चाहती थी कुछ पूछे; लेकिन कुछ कैसे? मान जो टूट जाता। मान ही किस बात का। मान तब करे, जब कोई उसकी बात पूछता हो। मान-अपमान से उसे कोई प्रयोजन नहीं। नारी ही क्यों हुई?
उसने धीरे-धीरे कमरे का पर्दा हटाकर अंदर झाँका। देखा सिंगारसिंह सोफा पर चुपचाप लेटा हुआ है, जैसे कोई पक्षी साँझ के सन्नाटे में परों में मुँह छिपाए बैठा हो। समीप आकर बोली- ''मेरे मुँह पर तो ताला डाल दिया गया है; लेकिन क्या करूँ, बिना बोले रहा नहीं जाता। कई दिन से सरकार की महफ़िल में सन्नाटा क्यों है? तबियत तो अच्छी है?''
सिंगार ने उसकी ओर आँखें उठाई। उनमें व्यथा भरी हुई थी। कहा- ''तुम अपने मैके क्यों नहीं चली जाती लीला?''
''आपकी जो आज्ञा; पर यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर न था।'
''वह कोई बात नहीं। मैं विलकुल अच्छा हूँ। ऐसे बेहयाओं को मौत भी नहीं आती। अब इस जीवन से जी भर गया। कुछ दिनों के लिए बाहर जाना चाहता हूँ। तुम अपने घर चली जाओ, तो मैं निश्चित हो जाऊँ।''
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