कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 39 प्रेमचन्द की कहानियाँ 39प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग
एक दिन रामेश्वर ने बेटे से कहा– तुम्हारे पास रुपये बढ़ गये हैं, तो चार पैसे जमा क्यों नहीं करते। लुटाते क्यों हो?
जागे०– मैं तो एक-एक कौड़ी की किफायत करता हूँ?
रामे०– जिन्हें अपना समझ रहे हो, वे एक दिन तुम्हारे शत्रु होंगे।
जागे०– आदमी का धर्म भी तो कोई चीज है! पुराने बैर पर एक परिवार को भेंट नहीं कर सकता। मेरा बिगड़ता ही क्या है, यही न रोज घंटे-दो-घंटे और मेहनत करनी पड़ती है।
रामेश्वर ने मुँह फेर लिया। जागेश्वर घर में गया तो उसकी स्त्री ने कहा– अपने मन की ही करते हो, चाहे कोई कितना ही समझाये। पहले घर में आदमी दिया जलाता है।
जागे०– लेकिन यह तो उचित नहीं कि अपने घर में दिया की जगह मोमबत्तियाँ जलाये और मसजिद को अँधेरा ही छोड़ दें।
स्त्री– मैं तुम्हारे साथ क्या पड़ी, मानों कुएँ में गिर पड़ी। कौन सुख देते हो? गहने उतार लिये, अब साँस भी नहीं लेते।
जागे०– मुझे तुम्हारे गहनों से भाइयों की जान ज्यादा प्यारी है।
स्त्री ने मुँह फेर लिया और बोली– वैरी की संतान कभी अपनी नहीं होती।
जागेश्वर ने बाहर जाते हुए उत्तर दिया– वैर का अंत वैरी के जीवन के साथ हो जाता है।
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