कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये बनाये जाते, नित नयी व्यूह रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते भिडंत हो जाती। तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती। पर शीघ्र ही दोनों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती. मिर्जा जी रूठ कर अपने घर में जा बैठते। पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।
एक दिन दोनों मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते लगा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी? यह तलबी किसलिये हुई? अब खैरियत नहीं नजर आती! घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकर से बोले- कह दो घर में नहीं हैं।
सवार- घर में नहीं, तो कहाँ हैं?
नौकर- यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?
सवार- काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुजूर से तलबी है - शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा।
नौकर- अच्छा तो जाइए, कह दिया जायेगा।
सवार- कहने की बात नहीं। कल मैं खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले- कहिए, जनाब, अब क्या होगा?
मिर्जा- बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी भी तलबी न हो।
मीर- कम्बख्त कल आने को कह गया है।
मिर्जा- आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे।
मीर- बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे।
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