कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
मिर्जा- जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा - यह किश्त!
मीर- आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है। कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे?
मिर्जा- जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी - यह किश्त, बस अब की शह में मात है।
फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी। मिर्जा बोले- आज खाने की कैसी ठहरेगी?
मीर- अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है?
मिर्जा- जी नहीं। शहर में जाने क्या हो रहा है?
मीर- शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।
मिर्जा ने कहा- हुजूर नवाब को जालिमों ने कैद कर लिया है।
मीर- होगा, यह लीजिए शह!
मिर्जा- जनाब, जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत ठीक नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे।
मीर- रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त।
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