कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
मीर- उसमें क्यों रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था?
मिर्जा- मुहरा आप कयामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे।
मीर- धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तकदीर से होती है। धाँधली करने से कोई नहीं जीतता।
मिर्जा- तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी।
मीर- मुझे क्यों मात होने लगी?
मिर्जा- तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।
मीर- वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।
मिर्जा- क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा।
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बातें होने लगीं। मिर्जा बोले- किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता।
मीर- क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होंगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते हैं?
मिर्जा- अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी। आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं।
मीर- क्यों अपने बुजुर्गों के मुँह पर कालिख लगाते हो - वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये हैं।
मिर्जा- अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर!
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