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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


बाबू जी का जी दूसरे दिन भी न सँभला। मैं क्लब न गयी। परन्तु जब लगातार तीन दिन तक उन्हें बुखार आता गया और मिसेज दास ने बार-बार एक नर्स बुलाने का आदेश किया, तो मैं सहमत हो गयी। उस दिन से रोगी की सेवा-शुश्रूषा से छुट्टी पा कर बड़ा हर्ष हुआ। यद्यपि दो दिन मैं क्लब न गयी थी, परंतु मेरा जी वहीं लगा रहता था, बल्कि अपने भीरूतापूर्ण त्याग पर क्रोध भी आता था।

एक दिन तीसरे पहर मैं कुर्सी पर लेटी हुई अंग्ररेजी पुस्तक पढ़ रही थी। अचानक मनमें यह विचार उठा कि बाबू जी का बुखार असाध्य हो जाय तो? पर इस विचार से लेश-मात्र भी दु:ख न हुआ। मैं इस शोकमय कल्पना का मन ही मन आनंद उठाने लगी। मिसेज दास, मिसेज नायडू मिसेज श्रीवास्तब, मिस खरे, मिसेज शरगर अवश्य ही मातमपुर्सी करने आवेंगी। उन्हें देखते ही मैं सजल नेत्र हो उठूँगी, और कहूँगी- बहनों! मैं लुट गयी। हाय मैं लुट गयी। अब मेरा जीवन अँधेरी रात के भयावह वन या श्मशान के दीपक के समान है, परंतु मेरी अवस्था पर दु:ख न प्रकट करो। मुझ पर जो पड़ेगी, उसे मैं उस महान् आत्मा के मोक्ष के विचार से सह लूँगी।

मैंने इस प्रकार मन में एक शोकपूर्ण व्याख्यान की रचना कर डाली। यहाँ तक कि अपने उस वस्त्र के विषय में भी निश्चय कर लिया, जो मृतक के साथ श्मशान जाते समय पहनूँगी।

इस घटना की शहर भर में चर्चा हो जायेगी। सारे कैन्टोमेंट के लोग मुझे सम्वेदना के पत्र भेजेंगे। तब मैं उनका उत्तर समाचार पत्रों में प्रकाशित करा दूँगी कि मैं प्रत्येक शोक-पत्र का उत्तर देने में असमर्थ हूं। हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं, उसे रोने के सिवा और किसी काम के लिए समय नहीं है। मैं इस महदर्दी के लिए उन लोगों की कृतज्ञ हूं, और उनसे विनय-पूर्वक निवेदन करती हूं कि वे मृतक की आत्मा की सदगति के निमित्त ईश्वर से प्रार्थना करें।

मैं इन्हीं विचारों मे डूब हुई थी कि नर्स ने आकर कहा– आपको साहब याद करते हैं। यह मेरे क्लब जाने का समय था। मुझे उनका बुलाना अखर गया, लेकिन एक मास हो गया था। वह अत्यन्त दुर्बल हो रहे थे। उन्होंने मेरी और विनयपूर्ण दृष्टि से देखा। उसमे आँसू भरे हुए थे। मुझे उन पर दया आयी। बैठ गयी, और ढ़ाढस देते हुए बोली –क्या करूँ? कोई दूसरा डाक्टर बुलाऊँ?

बाबू जी आँखें नीची करके अत्यंत करुण भाव से बोले– यहाँ कभी नहीं अच्छा हो सकता, मुझे अम्माँ के पास पहुँचा दो।

मैंने कहा- क्या आप समझते है कि वहाँ आपकी चिकित्सा यहाँ से अच्छी होगी?

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