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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


कुँवर गजराजसिंह रूपवान थे, उदार थे, बलवान् थे, शिक्षित थे, विनोदप्रिय थे और प्रेम का अभिनय भी करना जानते थे; उनके जीवन में प्रेम से कंपित होने वाला तार न था। वसुधा का खिला हुआ यौवन और देवताओं को भी लुभाने वाला रूप-रंग केवल विनोद का सामान था। घुड़दौड़ और शिकार, सट्टे और मकार जैसे सनसनी पैदा करने वाले मनोरंजन में प्रेम दबकर पीला और निर्जीव हो गया था। और प्रेम से वंचित होकर वुसधा की प्रेम-तृष्णा अब अपने भाग्य को रोया करती थी। दो पुत्र-रत्न पाकर भी वह सुखी न थी।

कुंवर साहब एक महीने से ज्यादा हुआ, शिकार खेलने गये और अभी तक लौटकर नहीं आये। और यह ऐसा, पहला ही अवसर न था। हाँ, अब उनकी अवधि बढ़ गयी थी। पहले वह एक सप्ताह में लौट आते थे; फिर दो सप्ताह का नम्बर चला और अब कई बार से एक-एक महीने की खबर लेने लगे। साल में तीन-तीन महीने शिकार की भेंट हो जाते थे। शिकार से लौटते, तो घुड़दौड़ का राग छिड़ता। कभी मेरठ, कभी पूना, कभी बम्बई, कभी कलकत्ता। घर पर ही रहते, तो अधिकतर लम्पट रईसजादों के साथ गप्पें उड़ाया करते। पति के यह रंग-ढंग देखकर वसुधा मन-ही-मन कुढ़ती और घुलती जाती थी। कुछ दिनों से हल्का-हल्का ज्वर भी रहने लगा था।

वसुधा बड़ी देर तक बैठी उदास आँखों से यह दृश्य देखती रही। फिर टेलीफोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा, "कुँवर साहब का कोई पत्र आया?"

फोन ने जवाब दिया, "ज़ी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।"

वसुधा ने जलकर कहा, "मैं यह नहीं पूछती! आने को कब लिखा है?"

“आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।”

“यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर है?”

“यहाँ से! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।”

“मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।”

फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, " एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में, चौथी की मरम्मत हो रही है।"

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