लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

146 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


जिस प्रकार मानसरोवर पवित्र जल से परिपूर्ण हो रहा है, उसी भाँति हमारे हृदय पवित्र आनंद से परिपूर्ण थे। किंतु शोक! वह कदाचित् मेरे सौभाग्य-चंद्र की अंतिम झलक थी।

मैं झूले के पास पहुँचकर पटरे पर बैठी, किंतु कोमलांगी विद्याधरी ऊपर न आ सकी। वह कई बार उचकी, परंतु नीचे ही रह गई। तब मेरे परिदेव ने सहारा देने के लिए उसकी बाँह पकड़ ली। उस समय उनके नेत्रों में एक विचित्र तृष्णा की झलक थी, और मुख पर एक विचित्र आतुरता। वह धीमे स्वर में मल्हार गा रहे थे। किंतु विद्याधरी जब पटरे पर आयी, तो उसका मुख डूबते हुए सूर्य का भाँति लाल और नेत्र अरुण वर्ण हो रहे थे। उसने मेरे पतिदेव की ओर क्रोधोन्मत्त होकर देखा, और बोली- तूने काम के वश होकर मेरे शरीर में हाथ लगाया है। मैं अपने पातिव्रत के बल से तुझे शाप देती हूँ कि तू इसी क्षण पशु हो जा।

यह कहते ही विद्याधरी ने अपने गले से रुद्राक्ष की माला निकालकर मेरे पतिदेव के ऊपर फेंक दी, और तत्क्षण ही पटरे के समीप मेरे पतिदेव के स्थान पर एक विशाल सिंह दिखाई दिया।

ऐ मुसाफिर! अपने प्रिय पति देवता की यह गति देखकर मेरा रक्त सूख गया, और कलेजे पर बिजली सी आ गरी। मैं विद्याधरी के पैरों से लिपट गई, और फूट-फूट कर रोने लगी। उस समय अपनी आँखों से देखकर अनुभव हुआ कि पतिव्रता की महिमा कितनी प्रबल है। ऐसी घटनाएँ मैंने पुराणों में पढ़ी थीं, पर मुझे विश्वास न था कि वर्तमान काल में जब किसी स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में स्वार्थ की मात्रा दिनों-दिन अधिक होती जाती है, पातिव्रत धर्म में यह प्रभाव होगा। मैं कह नहीं कह सकती कि विद्याधरी का यह संदेह कहाँ तक ठीक था। मेरे पति विद्याधरी को सदैव बहन कहकर सम्बोधित करते थे। वह अत्यंत स्वरूपवान थे, और रूपवान पुरुष की स्त्री का जीवन बहुत सुखमय नहीं होता, पर मुझे उन पर संशय करने का अवसर नहीं मिला। वह स्त्री-व्रत-धर्म का वैसा ही पालन करते थे, जैसे सती अपने धर्म का। उनकी दृष्टि में कुचेष्टा न थी, और विचार अत्यंत उज्ज्वल और पवित्र थे, यहाँ तक कि कालिदास की श्रृंगारमय कविता भी उन्हें प्रिय न थी। मगर काम के मर्मभेदी बाणों से कौन बचा है! जिस काम ने शिव और ब्रह्मा-जैसे तपस्वियों की तपस्या भंग कर दी, जिस काम ने नारद और विश्वामित्र जैसे ऋषियों के माथे पर कलंक का टीका लगा दिया, वह काम सब कुछ कर सकता है। संभव है, सुरा-पान ने उद्दीपक ऋतु के साथ मिलकर उनके चित्त को विचलित कर दिया हो। मेरा गुमान तो यह है कि यह विद्याधरी की केवल भ्रांति थी। जो कुछ भी हो, उसने शाप दे दिया। उस समय मेरे मन में भी उत्तेजना हुई कि जिस शक्ति का विद्याधरी को गर्व है, क्या वह शक्ति मुझमें नहीं? क्या मैं पतिव्रता नहीं हूँ? किन्तु हाँ! मैंने कितना ही चाहा कि शाप के शब्द मुँह से निकालूँ, पर मेरी जबान बन्द हो गई। वह अखंड विश्वास, जो विद्याधरी को अपने पातिव्रत पर था, मुझे न था। विवशता ने मेरे प्रतिकार के आवेग को शांत कर दिया। मैंने बड़ी दीनता के साथ कहा-बहन, तुमने यह क्या किया?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book