कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
काक- ''हुजूर, धोखा क्या दूँगा। यह कारीगर की उस्तादी है। इससे दो दिन लग गए। जरा इसके सर पर हाथ तो रखिए।''
हरबर्ट-''तुम खुद रखो। मुझे यक़ीन नहीं आता।''
काक ने नकली राबिन के सर पर हाथ रखा। उसने पड़े-पड़े एक बार आँख खोली और फिर बंद कर ली। अब लार्ड साहब ने फ़िर जुर्रत करके गरदन थपथपाई। कुत्ते ने भी आहिस्ता से दुम हिलाने के अलावा और कोई बेजा हरकत नहीं की। लार्ड साहब का चेहरा खुशी से फूल पड़ा। बोले- ''बेशक, कमाल किया है। कमाल। किसको दुआ दूँ।''
काक ''हुजूर अब पाउंड''
हरबर्ट- ''ऐसी क्या जल्दी है।''
काक- ''हुजूर, राबर्ट सख्त तकाजा कर रहा है। मुझे तो ऐसी कोई जरूरत नहीं।
लार्ड हरबर्ट ने बड़ी फ़राखदिली से सौ पाउंड का एक चैक निकालकर काक के हवाले कर दिया और थोड़ी देर के बाद गैर-मामूली सज-धज के साथ अकड़ते-झूमते आप मिस लैला के कमरे में दाखिल हुए। लैला ने इन्हें देखते ही शिकात की- ''लार्ड हरबर्ट। मेरे कुत्ते को आज खुदा जाने क्या हो गया है। न मेरे बुलाने से आता है, न मेरे पास बैठता है। बस बरामदे में चुपचाप पड़ा हुआ है।''
लार्ड हरबर्ट (निहायत हमदर्दाना लहजा में दिलहिदी के तौर पर)- ''बदहजमी हो गई होगी। दो-एक दिन में अच्छा हो जाएगा।''
यह कहकर आपने जाकर राबिन के सर पर हाथ रखा और बहुत रामगुसारी (सहानुभूति) के साथ बोले- ''बेचारा बहुत निढाल हो गया है। वरना क्या हरदम खेलता रहता था। मगर आप घबडाएँ नहीं। दो-एक दिन में इसकी तबियत साफ़ हो जाएगी।''
आज शाम तक मिस लैला के साथ रहे और एक लम्हे के लिए भी ज़बान बंद नहीं की। कभी अपनी जवाँमरदी का, कभी अपने सैरो-सफ़र का, कभी अज़ीबो-ग़रीब मुनाज़र (शास्त्रार्थ) का तज़्करा करते रहे और लैला भी कोई रफ़ीक न रहने के सबव से या सनकी सज-धज की कशिश के बाइस आज उनसे गैरमामूली अखलाक़ (शिष्टाचार) से पेश आई।
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