कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42 प्रेमचन्द की कहानियाँ 42प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग
मगर यह तीनों अपराधी दूसरे दिन भी न आये, तीसरे दिन भी उनका कोई पता न था। वह घर से मदरसे को चलते, लेकिन देहात की तरफ निकल जाते। वहाँ दिन-भर किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहते, अथवा गुल्ली-डंडे खेलते। शाम को घर चले आते।
उन्होंने यह पता लगा लिया था कि समर के अन्य सभी योद्धागण मदरसे आते हैं और मुंशीजी उनसे कुछ नहीं बोलते, किन्तु चित्त से शंका दूर न होती थी। बाजबहादुर ने जरूर कहा होगा। हम लोगों के जाने की देर है। गये और बेभाव की पड़ी। यही सोचकर मदरसे आने का साहस न कर सकते थे।
चौथे दिन प्रातःकाल तीनों अपराधी बैठे सोच रहे थे कि आज किधर चलना चाहिए। इतने में बाजबहादुर आता हुआ दिखाई दिया। इन लोगों को आश्चर्य तो हुआ, परन्तु उसे अपने द्वार पर आते देखकर कुछ आशा बंध गई। यह लोग अभी बोलने भी न पाए थे कि बाजबहादुर ने कहा- क्यों मि. तुम लोग मदरसे क्यों नहीं आते? तीनदिन से गैरहाजिरी हो रही है।
जगतसिंह- मदरसे क्या जायँ, जान भारी पड़ी है? मुंशी जी एक हड्डी भी तो न छोड़ेंगे।
बाजबहादुर- क्यों, वलीमुहम्मद, दुर्गा, सभी तो जाते हैं। मुंशी जी ने किसी से भी कुछ कहा?
जयराम- तुमने उन लोगों को छोड़ दिया होगा, लेकिन हमें भला तुम क्यों छोड़ने लगे? तुमने एक-एक की तीन-तीन जड़ी होगी।
बाजबहादुर- आज मदरसे चलकर इसकी परीक्षा ही कर लो।
जगतसिंह- यह झाँसे रहने दीजिए। हमें पिटवाने की चाल है।
बाजबहादुर- तो मैं कहीं भागा तो नहीं जाता? उस दिन सचाई की सजा दी थी, आज झूठ का इनाम देना।
जयराम- सच कहते हो, तुमने शिकायत नहीं की?
बाजबहादुर- शिकायत की कौन बात थी। तुमने मुझे मारा, मैंने तुम्हें मारा। अगर तुम्हारा घूंसा न पड़ता, तो मैं तुम लोगों को रणक्षेत्र से भगाकर दम लेता। आपस के झगड़ों की शिकायत करना मेरी आदत नहीं है।
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