लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचन्द की कहानियाँ 42

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9803
आईएसबीएन :9781613015407

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

222 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बयालीसवाँ भाग


उसी की सेना का एक आदमी शत्रुओं से मिला हुआ था। यहाँ की खबरें वहाँ नित्य पहुँचती रहती थीं। उन्होंने चिंता से निश्चिंत होने के लिए एक षड़यंत्र रच रखा था-उसकी गुप्त हत्या करने के लिए तीन साहसी सिपाहियों को नियुक्त कर दिया था। वे तीनों हिंस्त्र-पशुओं की भाँति दबे पाँव जंगल को पार करके आये, और वृक्षों की आड़ में खड़े होकर सोचने लगे कि चिंता का खेमा कौन-सा है। सारी सेना बेखबर सो रही थी इससे उन्हें अपने कार्य की सिद्धि में लेश मात्र संदेह न था। वे वृक्षों की आड़ से निकले, और जमीन पर मगर की तरह रेंगते हुए चिंता के खेमे की ओर चले।

सारी सेना बेखबर सोती थी, पहले के सिपाही थककर चूर हो जाने के कारण निद्रा में मग्न हो गए थे। केवल एक प्राणी खेमे के पीछे मारे ठंड के सिकुड़ा हुआ बैठा था। यह रत्नसिंह था। आज उसने यह कोई नई बात न की थी। पड़ावों में उनकी रातें इसी भाँति चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थीं। घातकों की आहट पाकर उसने तलवार निकाल ली और चौंककर उठ खड़ा हुआ। देखा तीन आदमी झुके हुए चले आ रहे हैं। अब क्या करे? अगर शोर मचाता है, तो सेना में खलबली पड़ जाए, और अँधेरे में लोग एक दूसरे पर वार करके आपस ही में कट मरें। इधर तीन जवानों से भिड़ने में प्राणों का भय था। अधिक सोचने का मौका न था। उसमें योद्धाओं की अविलम्ब निश्चय कर लेने की शक्ति थी। तुरन्त तलवार खींच ली, और उन तीनों पर टूट पड़ा कई मिनट तक तलवारें छपाछप चलती रहीं। फिर सन्नाटा हो गया। उधर वे तीनों आहत होकर गिर पड़े, इधर यह भी जख्मों से चूर होकर अचेत हो गया।

प्रातःकाल चिंता उठी, तो चारों जवानों को भूमि पर पड़े पाया। उसका कलेजा धक-से हो गया! समीप जाकर देखा, तीनों आक्रमणकारियों के प्राण निकल चुके थे, पर रत्नसिंह  की साँस चल रही थी। सारी घटना समझ में आ गई। नारीत्व ने वीरत्व पर विजय पायी। जिन आँखों से पिता की मृत्यु पर आँसू की एक बूँद न गिरी थी, उन्हीं आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई।

उसने रत्नसिंह का सिर अपनी जाँघ पर रख लिया, और हृदयांगन में रचे हुए स्वयंवर में उसके गले में जयमाला डाल दी।

महीने भर न रत्नसिंह की आँखें खुलीं और न चिंता की आँखें बन्द हुईं। चिंता उसके पास से एक क्षण के लिए भी कहीं न जाती। न अपने इलाके की परवाह थी, न शत्रुओं के बढ़ते चले आने की फिक्र। रत्नसिंह पर अपनी सारी विभूतियों को बलिदान कर चुकी थी। पूरा महीना बीत जाने के बाद रत्नसिंह की आँखें खुलीं। देखा, चारपाई पर पड़ा हुआ है, और चिंता सामने पंखा लिये खड़ी है। क्षीण स्वर में बोला- चिंता, पंखा मुझे दे दो। तुम्हें कष्ट हो रहा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book