लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 43

प्रेमचन्द की कहानियाँ 43

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9804
आईएसबीएन :9781613015414

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

353 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतालीसवाँ भाग


मगर नोहरी ने अच्छे दिन भी देखे हैं। एक दिन उसके पास धन, जन सब कुछ था। गाँव पर उसी का राज्य था। कोदई को उसने हमेशा नीचे दबाये रखा। वह स्त्री होकर भी पुरुष थी। उसका पति घर में सोता था, वह खेत मे सोने जाती थी। मामले-मुकदमें की पैरवी खुद ही करती थी। लेना-देना सब उसी के हाथों में था लेकिन वह सब कुछ विधाता ने हर लिया; न धन रहा, न जन रहे—अब उनके नामों को रोने के लिए वही बाकी थी। आँखों से सूझता न था, कानों से सुनायी न देता था, जगह से हिलना मुश्किल था। किसी तरह जिंदगी के दिन पूरे कर रही थी और उधर कोदई के भाग उदय हो गये थे। अब चारों ओर से कोदई की पूछ थी—पहुँच थी। आज जलसा भी कोदई के द्वार पर हो रहा हैं। नोहरी को अब कौन पूछेगा। यह सोचकर उसका मनस्वी हृदय मानो किसी पत्थर से कुचल उठा। हाय! मगर भगवान ने उसे इतना अपंग न कर दिया होता, तो आज झोपड़े को लीपती, द्वार पर बाजे बजवाती; कढ़ाव चढ़ा देती, पुड़ियाँ बनवायी और जब वह लोग खा चुकते; तो अँजुली भर रुपये उनको भेंट कर देती।

उसे वह दिन याद आया जब वह बूढ़े पति को लेकर यहाँ से बीस कोस महात्मा जी के दर्शन करने गयी थी। वह उत्साह, वह सात्विक प्रेम, वह श्रद्धा, आज उसके हृदय में आकाश के मटियाले मेघों की भाँति उमड़ने लगी। कोदई ने आ कर पोपले मुँह से कहा- भाभी, आज महात्मा जी का जत्था आ रहा है। तुम्हें भी कुछ देना है। नोहरी ने चौधरी को कटार भरी हुई आँखों से देखा। निर्दयी मुझे जलाने आया है। नीचा दिखाना चाहता है। जैसे आकाश पर चढ़ कर बोली- मुझे जो कुछ देना है, वह उन्हीं लोंगो को दूँगी। तुम्हें क्यों दिखाऊँ!

कोदई ने मुस्करा कर कहा- हम किसी से कहेंगे नहीं, सच कहते हैं भाभी, निकालो वह पुरानी हाँड़ी! अब किस दिन के लिए रखे हुए हो। किसी ने कुछ नहीं दिया। गाँव की लाज कैसे रहेगी?

नोहरी ने कठोर दीनता के भाव से कहा- जले पर नमक न छिड़को, देवर जी! भगवान ने दिया होता,तो तुम्हें कहना न पड़ता। इसी द्वार पर एक दिन साधु-संत, जोगी-जती, हाकिम-सूबा सभी आते थे; मगर सब दिन बराबर नहीं जाते! कोदई लज्जित हो गया। उसके मुख की झुर्रियाँ मानों रेंगने लगीं। बोला- तुम तो हँसी-हँसी में बिगड़ जाती हो भाभी! मैंने तो इसलिए कहा था कि पीछे से तुम यह न कहने लगो—मुझसे तो किसी ने कुछ कहा ही नहीं।

यह कहता हुआ वह चला गया। नोहरी वहीं बैठी उसकी ओर ताकती रही। उसका वह व्यंग्य सर्प की भाँति उसके सामने बैठा हुआ मालूम होता था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book