कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 43 प्रेमचन्द की कहानियाँ 43प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतालीसवाँ भाग
बाबूजी ने नम्रता से कहा- आप इसे जानते नहीं, बड़ा दुष्ट है।
‘मैं तो उसकी कोई दुष्टता नहीं देखता।’
‘आप अभी उसे जानते नहीं, एक ही पाजी है। इसके घर दो हलों की खेती होती है, हजारों का लेन-देन करता है; कई भैंसे लगती हैं। इन्हीं बातों का इसे घमण्ड है।’
‘घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यहाँ चपरासगिरी क्यों करता?’
‘विश्वास मानिए, बड़ा पोढ़ा आदमी है और बला का मक्खीचूस।’
‘यदि ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध नहीं है।’
‘अजी, अभी आप इन बातों को नहीं जानते। कुछ दिन और रहिए तो आपको स्वयं मालूम हो जाएगा कि यह कितना कमीना आदमी है?’
एक दूसरे महाशय बोल उठे- भाई साहब, इसके घर मनों दूध-दही होता है, मनों मटर, जुवार, चने होते हैं, लेकिन इसकी कभी इतनी हिम्मत न हुई कि कभी थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दो। यहाँ इन चीजों को तरसकर रह जाते हैं। तो फिर क्यों न जी जले? और यह सब कुछ इसी नौकरी के बदौलत हुआ है। नहीं तो पहले इसके घर में भूनी भाँग न थी।
बड़े बाबू कुछ सकुचाकर बोले- यह कोई बात नहीं। उसकी चीज है, किसी को दे या न दे; लेकिन यह बिल्कुल पशु है।
मैं कुछ-कुछ मर्म समझ गया। बोला- यदि ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी है, तो वास्तव में पशु ही है। मैं यह न जानता था।
अब बड़े बाबू भी खुले। संकोच दूर हुआ। बोले- इन सौगातों से किसी का उबार तो होता नहीं, केवल देने वाले की सहृदयता प्रकट होती है। और आशा भी उसी से की जाती है, जो इस योग्य होता है। जिसमें सामर्थ्य ही नहीं, उससे कोई आशा नहीं करता। नंगे से कोई क्या लेगा?
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