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प्रेमचन्द की कहानियाँ 43

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9804
आईएसबीएन :9781613015414

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतालीसवाँ भाग


ऐसा मालूम होता था, यह आदमियों की एक नदी थी, जो सैकड़ों छोटे-छोटे नालों और धारों को लेती हुई समुद्र से मिलने के लिए जा रही थी। जब यह लोग गंगा के किनारे पहुँचे तो तीसरे पहर का वक्त था लेकिन मीलों तक कहीं तिल रखने की जगह न थी। इस शानदार दृश्य से दिलों पर ऐसा रोब और भक्ति का ऐसा भाव छा जाता था कि बरबस ‘गंगा माता की जय’ की सदायें बुलन्द हो जाती थीं।

लोगों के विश्वास उसी नदी की तरह उमड़े हुए थे और वह नदी! वह लहराता हुआ नीला मैदान! वह प्यासों की प्यास बुझानेवाली! वह निराशों की आशा! वह वरदानों की देवी! वह पवित्रता का स्रोत! वह मुट्ठी भर खाक को आश्रय देनेवीली गंगा हँसती-मुस्कराती थी और उछलती थी। क्या इसलिए कि आज वह अपनी चौतरफा इज्जत पर फूली न समाती थी या इसलिए कि वह उछल-उछलकर अपने प्रेमियों के गले मिलना चाहती थी जो उसके दर्शनों के लिए मंजिल तय करके आये थे! और उसके परिधान की प्रशंसा किस जबान से हो, जिस सूरज ने चमकते हुए तारे टाँके थे और जिसके किनारों को उसकी किरणों ने रंग-बिरंगे, सुन्दर और गतिशील फूलों से सजाया था।

अभी ग्रहण लगने में घण्टे की देर थी। लोग इधर-उधर टहल रहे थे। कहीं मदारियों के खेल थे, कहीं चूरनवाले की लच्छेदार बातों के चमत्कार। कुछ लोग मेढ़ों की कुश्ती देखने के लिए जमा थे। ठाकुर साहब भी अपने कुछ भक्तों के साथ सैर को निकले। उनकी हिम्मत ने गवारा न किया कि इन बाजारू दिलचस्पियों में शरीक हों। यकायक उन्हें एक बड़ा-सा शामियाना तना हुआ नजर आया, जहाँ ज्यादातर पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ थी। ठाकुर साहब ने अपने साथियों को एक किनारे खड़ा कर दिया और खुद गर्व से ताकते हुए फर्श पर जा बैठे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यहाँ उन पर देहातियों की ईर्ष्या-दृष्टि पड़ेगी और सम्भव है कुछ ऐसी बारीक बातें भी मालूम हो जायँ तो उनके भक्तों को उनकी सर्वज्ञता का विश्वास दिलाने में काम दे सकें।

यह एक नैतिक अनुष्ठान था। दो-ढाई हजार आदमी बैठे हुए एक मधुरभाषी वक्ता का भाषण सुन रहे थे। फैशनेबुल लोग ज्यादातर अगली पंक्ति में बैठे हुए थे जिन्हें कनबतियों का इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता था। कितने ही अच्छे कपड़े पहने हुए लोग इसलिए दुखी नजर आते थे कि उनकी बगल में निम्न श्रेणी के लोग बैठे हुए थे। भाषण दिलचस्प मालूम पड़ता था। वजन ज्यादा था और चटखारे कम, इसलिए तालियाँ नहीं बजती थी।

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