कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
दूसरे दिन महतो ने गाँव के आदमियों को जमा करके कहा- पंचो, अब रामू का और मेरा एक में निबाह नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की किच-किच अच्छी नहीं।
गाँव के मुख्तार बाबू सजनसिंह बड़े सज्जन पुरुष थे। उन्होंने रामू को बुलाकर पूछा- क्यों जी, तुम अपने बाप से अलग रहना चाहते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती कि औरत के कहने से माँ-बाप को अलग किये देते हो? राम! राम!
रामू ने ढिठाई के साथ कहा- जब एक में गुजर न हो, तो अलग हो जाना ही अच्छा है।
सज्ननसिंह - तुमको एक में क्या कष्ट होता है?
रामू - एक बात हो तो बताऊँ।
सजनसिंह - कुछ तो बतलाओ।
रामू - साहब, एक में मेरा इनके साथ निबाह न होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।
यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना।
तुलसी - देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज! आप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे दें, पर अब मैं इस दुष्ट के साथ न रहूँगा। भगवान ने बेटी को दु:ख दे दिया, नहीं तो मुझे खेती-बारी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता वहीं कमाता खाता! भगवान ऐसा बेटा सातवें बैरी को भी न दें। 'लड़के से लड़की भली, जो कुलवंती होय।'
सहसा सुभागी आकर बोली - दादा, यह सब बाँट-बखरा मेरे ही कारन तो हो रहा है, मुझे क्यों नहीं अलग कर देते। मैं मेहनत-मजूरी करके अपना पेट पाल लूँगी। अपने से जो कुछ बन पड़ेगा, तुम्हारी सेवा करती रहूँगी; पर रहूँगी अलग। यों घर का बारा-बाँट होते मुझसे नहीं देखा जाता। मैं अपने माथे यह कलंक नहीं लेना चाहती।
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