कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
गौरा- नहीं, मेरी खातिर से इसे रहने दो।
रतन- तुमने मेरी खातिर से एक भी चीज न रखी, मैं क्यों तुम्हारी खातिर करूँ।
गौरा- पैरों पड़ती हूँ, जिद न करो।
रतन- स्वदेशी साड़ियों में से जो चाहो रख लो, लेकिन इस विलायती चीज को मैं न रखने दूँगा। इसी कपड़े की बदौलत हम गुलाम बने, यह गुलामी का दाग़ मैं अब नहीं रख सकता। लाओ इधर।
गौरा- मैं इसे न दूँगी, एक बार नहीं हज़ार बार कहती हूँ कि न दूँगी।
रतन- मैं इसे लेकर छोड़ूँगा, इस गुलामी के पटके को, इस दासत्व के बंधन को किसी तरह न रखूँगा।
गौरा- नाहक जिद करते हो।
रतन- आखिर तुमको इससे क्यों इतना प्रेम है?
गौरा- तुम तो बाल की खाल निकालने लगते हो। इतने कपड़े थोड़े हैं? एक साड़ी रख ही ली तो क्या?
रतन- तुमने अभी तक इन होलियों का आशय ही नहीं समझा।
गौरा- खूब समझती हूँ। सब ढोंग है। चार दिन में जोश ठंडा पड़ जायेगा।
रतन- तुम केवल इतना बतला दो कि यह साड़ी तुम्हें क्यों इतनी प्यारी है, तो शायद मैं मान जाऊँ।
गौरा- यह मेरी सुहाग की साड़ी है।
रतन- (जरा देर सोच कर) तब तो मैं इसे कभी न रखूँगा। मैं विदेशी वस्त्र को यह शुभस्थान नहीं दे सकता। इस पवित्र संस्कार का यह अपवित्र स्मृति-चिह्न घर में नहीं रख सकता। मैं इसे सबसे पहले होली की भेंट करूँगा। लोग कितने हतबुद्धि हो गये थे कि ऐसे शुभ कार्यों में भी विदेशी वस्तुओं का व्यवहार करने में संकोच न करते थे। मैं इसे अवश्य होली में दूँगा।
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