कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
गौरा- मकान बेच दो, रुपये ही रुपये हो जायेंगे।
रतन- और रहें, पेड़ तले?
गौरा- नहीं, गाँववाले मकान में।
रतन- सोचूँगा।
गौरा- (जरा देर में) इलाके-भर में खूब कपास की खेती कराओ, जो कपास बोये उसकी बेगार माफ कर दो।
रतन- हाँ, तदबीर अच्छी है, दूनी उपज हो जायेगी।
गौरा- (कुछ देर सोचने के बाद) लकड़ी बिना दाम दो तो कैसा हो? जो चाहे, चरखे बनवाने के लिए काट ले जाये।
रतन- लूट मच जायेगी।
गौरा- ऐसी बेईमानी कोई न करेगा।
जब उसने गाड़ी से उतर कर घर में कदम रखा तो चित्त शुभ-कल्पनाओं से प्रफुल्लित हो रहा था। मानो कोई बछड़ा खूँटे से छूटकर किलोलें कर रहा हो।
4. सेवा-मार्ग
तारा ने बारह वर्ष दुर्गा की तपस्या की। न पलंग पर सोयी, न केशो को सँवारा और न नेत्रों में सुर्मा लगाया। पृथ्वी पर सोती, गेरुआ वस्त्र पहनती और रूखी रोटियाँ खाती। उसका मुख मुरझाई हुई कली की भाँति था, नेत्र ज्योति हीन और हृदय एक शून्य बीहड़ मैदान। उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ। शरीर मोमबत्ती की तरह घुलता था, पर यह लौ दिल से नहीं जाती यही उसकी इच्छा थी, यही उसका जीवनोद्देश्य। क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी? इस समय के देवता पत्थर के होते हैं। पत्थर को भी कभी किसी ने पिघलते देखा है? देख, तेरी सखियाँ पुष्प की भाँति विकसित हो रही हैं, नदी की तरह बढ़ रही हैं; क्या तुझे मुझ पर दया नहीं आती?' तारा कहती- 'माता, अब तो जो लगन लगी, वह लगी। या तो देवी के दर्शन पाऊँगी या यही इच्छा लिये संसार से प्रयाण कर जाऊँगी। तुम समझ लो, मैं मर गई।'
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