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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


इसमें हंस और बतख किलोलें कर रहे थे। यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग कहाँ हैं? दासियों से पूछा। उन्होंने कहा- 'वे लोग पुराने घर में हैं।'

तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा। उसे अपना पहला घर एक साधारण झोंपड़े की तरह दृष्टिगोचर हुआ, उसकी बहिनें उसकी साधारण दासियों के समान भी न थीं। माँ को देखा, वह आँगन में बैठी चरखा कात रही थी। तारा पहले सोचा करती थी, कि जब मेरे दिन चमकेंगे, तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूँगी और उनकी भली-भाँति सेवा करूँगी। पर इस समय धन के गर्व ने उसकी पवित्र हार्दिक इच्छा को निर्बल बना दिया था। उसने घर वालों को स्नेहरहित दृष्टि से देखा और तब वह उस मनोहर गान को सुनने चली गयी, जिसकी प्रतिध्वनि उसके कानों में आ रही थी।

एकबारगी जोर से एक कड़का हुआ, बिजली चमकी और बिजली की छटाओं से एक ज्योतिस्वरूप नवयुवक निकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा- तुम कौन हो?

नवयुवक ने कहा- श्रीमती, मुझे विद्युतसिंह कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञाकारी हूँ।

उसके विदा होते ही वायु के उष्ण झोंके चलने लगे। आकाश में एक प्रकाश दृष्टिगोचर हुआ। यह क्षण-मात्र में उतरकर तारा कुँवरि के समीप ठहर गया उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने निकलकर तारा के पदों को चूमा। तारा ने पूछा- तुम कौन हो?

उस मनुष्य ने उत्तर दिया- श्रीमती, मेरा नाम अग्निसिंह है! मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक हूँ।

वह अभी जाने भी न पाया था कि एकबारगी सारा महल ज्योति से प्रकाशमान हो गया। जान पड़ता था, सैकड़ों बिजलियां मिलकर चमक रही हैं। वायु सवेग हो गई। एक जगमगाता हुआ सिंहासन आकाश पर दीख पड़ा। वह शीघ्रता से पृथ्वी की ओर चला और तारा कुँवरि के पास आकर ठहर गया। उससे एक प्रकाशमान रूप का बालक, जिसके रूप से गम्भीरता प्रकट होती थी, निकलकर तारा के सामने निष्ठाभाव से खड़ा हो गया। तारा ने पूछा- तुम कौन हो?

बालक ने उत्तर दिया- श्रीमती! मुझे मिस्टर रेडियम कहते हैं। मैं श्रीमती का आज्ञापालक हूँ।

धनी लोग तारा के भय से थर्राने लगे। उसके आश्चर्यजनक सौंदर्य ने संसार को चकित कर दिया। बड़े-बड़े महीपति उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। जिसकी ओर उसकी कृपा-दृष्टि हो जाती, वह अपना अहोभाग्य समझता, सदैव के लिए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता।

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