कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
मगर साहब ने दया का पाठ न पढ़ा था। घुड़ककर बोले- चुप रह पाजी, टें-टें करके दिमाग चाट गया। बच्चा बन्दर छोड़कर बाग का सत्यानाश कर डाला, अब खुशामद करने चले हो। जाकर देखो तो, इसने कितने फल खराब कर दिये। अगर इसे ले जाना चाहता है तो दस रुपया लाकर मेरी नजर कर नहीं तो चुपके से अपनी राह पकड़। यह तो यहीं बंधे-बंधे मर जाएगा, या कोई इतने दाम देकर ले जाएगा। मदारी निराश होकर चला गया। दस रुपये कहां से लाता? बुधिया से जाकर हाल कहा। बुधिया को अपनी तरस पैदा करने की शक्ति पर ज्यादा भरोसा था। बोली- ‘बस, देख ली तुम्हारी करतूत! जाकर लाठी-सी मारी होगी। हाकिमों से बड़े दांव-पेंच की बातें की जाती हैं, तब कहीं जाकर वे पसीजते है। चलो मेरे साथ, देखों छुड़ा लती हूं कि नहीं।’
यह कहकर उसने मन्नू का सब सामान एक गठरी में बांधा और मदारी के साथ साहब के पास आई, मन्नू अब की इतने जोर से उछला कि खंभा हिल उठा, बुधिया ने कहा- ‘सरकार, हम आपके द्वार पर भीख मांगने आये हैं, यह बन्दर हमको दान दे दीजिए।’
साहब- हम दान देना पाप समझते है।
मदारिन- हम देस-देस घूमते हैं। आपका जस गावेंगे।
साहब- हमें जस की चाह या परवाह नहीं है।
मदारिन- भगवान् आपको इसका फल देंगे।
साहब- मैं नहीं जानता भगवान् कौन बला है।
मदारिन- महाराज, क्षमा की बड़ी महिमा है।
साहब- हमारे यहां सबसे बड़ी महिमा दण्ड की है।
मदारिन- हुजूर, आप हाकिम हैं। हाकिमों का काम है, न्याय करना। फलों के पीछे दो आदमियों की जान न लीजिए। न्याय ही से हाकिम की बड़ाई होती है।
साहब- हमारी बड़ाई क्षमा और न्याय से नहीं है और न न्याय करना हमारा काम है, हमारा काम है मौज करना।
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