कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
केशव को भी अब ज्ञात हुआ कि क्षणिक मोह के आवेश में स्वभाग्य निर्माण का ऐसा अच्छा अवसर त्याग देना मूर्खता है। खड़े होकर बोले- रोना-धोना मत, नहीं तो मेरा जी न लगेगा।
सुभद्रा ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाते हुए उनके मुँह की ओर सजल नेत्रों से देखा ओर बोली- पत्र बराबर भेजते रहना।
सुभद्रा ने फिर आँखों में आँसू भरे हुए मुस्करा कर कहा- देखना विलायती मिसों के जाल में न फँस जाना।
केशव फिर चारपाई पर बैठ गया और बोला- तुम्हें यह संदेह है, तो लो, मैं जाऊँगा ही नहीं।
सुभ्रदा ने उसके गले मे बाँहें डाल कर विश्वास-पूर्ण दृष्टि से देखा और बोली- मैं दिल्लगी कर रही थी।
‘अगर इन्द्रलोक की अप्सरा भी आ जाये, तो आँख उठाकर न देखूं। ब्रह्मा ने ऐसी दूसरी सृष्टि की ही नहीं।’
‘बीच में कोई छुट्टी मिले, तो एक बार चले आना।’
‘नहीं प्रिये, बीच में शायद छुट्टी न मिलेगी। मगर जो मैंने सुना कि तुम रो-रोकर घुली जाती हो, दाना-पानी छोड़ दिया है, तो मैं अवश्य चला आऊँगा ये फूल जरा भी कुम्हलाने न पायें।’
दोनों गले मिल कर बिदा हो गये। बाहर सम्बन्धियों और मित्रों का एक समूह खड़ा था। केशव ने बड़ों के चरण छुए, छोटों को गले लगाया और स्टेशन की ओर चले। मित्रगण स्टेशन तक पहुँचाने गये। एक क्षण में गाड़ी यात्री को लेकर चल दी।
उधर केशव गाड़ी में बैठा हुआ पहाड़ियों की बहार देख रहा था; इधर सुभद्रा भूमि पर पड़ी सिसकियाँ भर रही थी।
दिन गुजरने लगे। उसी तरह, जैसे बीमारी के दिन कटते हैं-दिन पहाड़, रात काली बला। रात-भर मनाते गुजरती थी कि किसी तरह भोर होता, तो मनाने लगती कि जल्दी शाम हो। मैके गयी कि वहाँ जी बहलेगा। दस-पाँच दिन परिवर्तन का कुछ असर हुआ, फिर उनसे भी बुरी दशा हुई, भाग कर ससुराल चली आयी। रोगी करवट बदलकर आराम का अनुभव करता है।
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