कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
सुभद्रा- तो मैं आपके जोड़े बहुत जल्द दे दूँगी।
युवती ने हँसकर कहा- मैं तो चाहती थी आप महीनों लगा देतीं।
सुभद्रा- वाह, मैं इस शुभ कार्य में क्यों विघ्न डालने लगी? मैं इसी सप्ताह में आपके कपड़े दे दूँगी, और उनसे इसका पुरस्कार लूँगी।
युवती खिलखिलाकर हँसी। कमरे में प्रकाश की लहरें-सी उठ गयीं। बोली- इसके लिए तो पुरस्कार वह देंगे, बड़ी खुशी से देंगे और तुम्हारे कृतज्ञ होंगे। मैंने प्रतिज्ञा की थी कि विवाह के बंधन में पड़ूँगी ही नहीं; पर उन्होंने मेरी प्रतिज्ञा तोड़ दी। अब मुझे मालूम हो रहा है कि प्रेम की बेड़ियाँ कितनी आनंदमय होती हैं। तुम तो अभी हाल ही में आयी हो। तुम्हारे पति भी साथ होंगे?
सुभद्रा ने बहाना किया। बोली- वह इस समय जर्मनी में हैं। संगीत से उन्हें बहुत प्रेम है। संगीत ही का अध्ययन करने के लिए वहाँ गये हैं।
‘तुम भी संगीत जानती हो?’
‘बहुत थोड़ा।’
‘केशव को संगीत बहुत प्रेम है।’
केशव का नाम सुनकर सुभद्रा को ऐसा मालूम हुआ, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। वह चौंक पड़ी।
युवती ने पूछा- आप चौंक कैसे गयीं? क्या केशव को जानती हो?
सुभद्रा ने बात बनाकर कहा- नहीं, मैंने यह नाम कभी नहीं सुना। वह यहाँ क्या करते हैं?
सुभद्रा को ख्याल आया, क्या केशव किसी दूसरे आदमी का नाम नहीं हो सकता? इसलिए उसने यह प्रश्न किया। उसी जवाब पर उसकी जिंदगी का फैसला था।
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