कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
|
9 पाठकों को प्रिय 242 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
‘सुभद्रा ने जमीन की ओर ताकते हुए कहा- कह नहीं सकती।‘
‘कोई जरूरत हो, तो मुझे याद कीजिए।‘
‘इस आश्वासन के लिए आपको धन्यवाद।‘
केशव सारे दिन बेचैन रहा। सुभद्रा उसकी आँखों में फिरती रही। सुभद्रा की बातें उसके कानों में गूँजती रहीं। अब उसे इसमें कोई सन्देह न था कि उसी के प्रेम में सुभद्रा यहाँ आयी थी। सारी परिस्थिति उसकी समझ में आ गयी थी। उस भीषण त्याग का अनुमान करके उसके रोयें खड़े हो गये। यहाँ सुभद्रा ने क्या-क्या कष्ट झेले होंगे, कैसी-कैसी यातनाएँ सही होंगी, सब उसी के कारण? वह उस पर भार न बनना चाहती थी। इसलिए तो उसने अपने आने की सूचना तक उसे न दी। अगर उसे पहले मालूम होता कि सुभद्रा यहाँ आ गयी है, तो कदाचित् उसे उस युवती की ओर इतना आकर्षण ही न होता। चौकीदार के सामने चोर को घर में घुसने का साहस नहीं होता। सुभद्रा को देखकर उसकी कर्त्तव्य-चेतना जाग्रत हो गयी। उसके पैरों पर गिर कर उससे क्षमा माँगने के लिए उसका मन अधीर हो उठा; वह उसके मुँह से सारा वृतांत सुनेगा। यह मौन उपेक्षा उसके लिए असह्य थी। दिन तो केशव ने किसी तरह काटा, लेकिन ज्यों ही रात के दस बजे, वह सुभद्रा से मिलने चला। युवती ने पूछा- कहाँ जाते हो?
केशव ने बूट का लेस बाँधते हुए कहा- जरा एक प्रोफेसर से मिलना है, इस वक्त आने का वादा कर चुका हूँ?
‘जल्द आना।‘
‘बहुत जल्द आऊँगा।‘
|