कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 44 प्रेमचन्द की कहानियाँ 44प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग
पर, गोदावरी इतनी जल्दी निराश होने वाली न थी। पहले तो वह देवी-देवता, गंडे-ताबीज और जंत्र-मंत्र आदि की शरण लेती रही, परन्तु जब उसने देखा कि औषधियाँ कुछ काम नहीं करतीं, तब वह एक महौषधि की फिक्र में लगी, जो कायाकल्प से कम नहीं थी। उसने महीनों, बरसों इसी चिन्ता-सागर में गोते लगाते काटे। उसने दिल को बहुत समझाया, परन्तु मन में जो बात समा गई थी, वह किसी तरह न निकली। उसे बड़ा भारी आत्मत्याग करना पड़ेगा। शायद पति-प्रेम के सदृश अनमोल रत्न भी उसके साथ निकल जाय, पर क्या ऐसा हो सकता है? पन्द्रह वर्ष तक लगातार जिस प्रेम के वृक्ष की उसने सेवा की है, वह हवा का एक झोंका भी न सह सकेगा?
गोदावरी ने अन्त में प्रबल विचारों के आगे सिर झुका ही दिया। अब सौत का शुभागमन करने के लिए वह तैयार हो गई थी।
पण्डित देवदत्त गोदावरी का यह प्रस्ताव सुनकर स्तम्भित हो गए। उन्होंने अनुमान किया कि या तो प्रेम की परीक्षा कर रही है या मेरा मन लेना चाहती है। उन्होंने उसकी बात हँसकर टाल दी। पर जब गोदावरी ने गम्भीर भाव से कहा– तुम इसे हँसी मत समझो, मैं अपने हृदय से कहती हूँ कि सन्तान का मुँह देखने के लिए मैं सौत से छाती पर मूँग दलवाने के लिए तैयार हूँ, तब तो उनका सन्देह जाता रहा। इतने ऊँचे और पवित्र भाव से भरी हुई गोदावरी को उन्होंने गले से लिपटा लिया। वे बोले– मुझसे यह न होगा। मुझे सन्तान की अभिलाषा नहीं।
गोदावरी ने जोर देकर कहा– तुमको न हो, मुझे तो है। अगर अपनी खातिर से नहीं, तो तुम्हें मेरी खातिर से यह काम करना ही पड़ेगा।
पण्डितजी सरल स्वभाव के मनुष्य थे। हामी तो उन्होंने न भरी, पर बार-बार कहने से वे कुछ-कुछ राजी अवश्य हो गए। उस तरफ से इसी की देर थी। पण्डितजी को कुछ भी परिश्रम न करना पड़ा। गोदावरी की कार्य-कुशलता ने सब काम उनके लिए सुलभ कर दिया। उसने उस काम के लिए अपने पास से केवल रुपये ही नहीं निकाले, किन्तु अपने गहने और कपड़े भी अर्पण कर दिए! लोक-निन्दा का भय इस मार्ग में सबसे बड़ा काँटा था। देवदत्त मन में विचार करने लगे कि मैं मौर सजाकर चलूँगा, तब लोग मुझे क्या कहेंगे! मेरे दफ्तर के मित्र मेरी हँसी उड़ाएँगे और मुस्कुराते हुए कटाक्षों से मेरी ओर देखेंगे। उनके वे कटाक्ष छुरी से भी ज्यादा तेज होंगे। उस समय मैं क्या करूँगा?
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