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प्रेमचन्द की कहानियाँ 44

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9805
आईएसबीएन :9781613015421

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौवालीसवाँ भाग


पण्डितजी बड़े ही सीधे आदमी थे। दफ्तर से आये, खाना खाया, पड़कर सो रहे। वे एक साप्ताहिक पत्र मँगाते थे। उसे कभी-कभी महीनों खोलने की नौबत न आती थी। जिस काम में जरा भी कष्ट या परिश्रम होता, उससे वे कोसों दूर भागते थे। कभी-कभी उनके दफ्तर में थिएटर के ‘‘पास’’ मुफ्त मिला करते थे। पर पण्डितजी उनसे कभी काम नहीं लेते, और ही लोग उनसे माँग ले जाया करते। रामलीला या कोई मेला तो उन्होंने शायद नौकरी करने के बाद फिर कभी देखा ही नहीं। गोदावरी उनकी प्रकृति का परिचय अच्छी तरह पा चुकी थी। पण्डितजी भी प्रत्येक विषय में गोदावरी के मतानुसार चलने में अपनी कुशल समझते थे।

पर रुई-सी मुलायम वस्तु भी दबकर कठोर हो जाती है। पण्डितजी को यह आठों प्रहर की चह-चह असह्य-सी प्रतीत होती, कभी-कभी मन में झुँझलाने भी लगते। इच्छा-शक्ति जो इतने दिनों तक बेकार पड़ी रहने से निर्बल-सी हो गई थी, अब कुछ सजीव-सी होने लगी थी।

पण्डितजी यह मानते थे कि गोदावरी ने सौत को घर लाने में बड़ा भारी त्याग किया है। उनका त्याग अलौकिक कहा जा सकता है; परन्तु उसके त्याग का भार जो कुछ है, वह मुझ पर है, गोमती पर उसका क्या एहसान? यहाँ उसे कौन-सा सुख है, जिसके लिए वह फटकार पर फटकार सहे? पति मिला है, वह बूढ़ा और सदा रोगी। घर मिला है, वह ऐसा कि अगर नौकरी छूट जाए तो कल चूल्हा न जले। इस दशा में गोदावरी का वह स्नेह-रहित बर्ताव उन्हें बहुत अनुचित मालूम होता।

गोदावरी की दृष्टि इतनी स्थूल न थी कि उसे पण्डितजी के मन के भाव नजर न आवें। उनके मन में जो विचार उत्पन्न होते, वे सब गोदावरी को उनके मुख पर अंकित-से दिखाई पड़ते। यह जानकारी उसके हृदय में एक ओर गोमती के प्रति ईर्ष्या की प्रचण्ड अग्नि दहका देती, दूसरी ओर पण्डित देवदत्त पर निष्ठुरता और स्वार्थप्रियता का दोषारोपण कराती। फल यह हुआ कि मनोमालिन्य दिनोंदिन बढ़ता ही गया।

गोदावरी ने धीरे-धीरे पण्डितजी से गोमती की बातचीत करनी छोड़ दी, मानो उसके निकट गोमती घर में थी ही नहीं। न उसके खाने-पीने की वह सुधि लेती, न कपड़े-लत्ते की। एक बार कई दिनों तक उसे जलपान के लिए कुछ भी न मिला। पण्डितजी तो आलसी जीव थे। वे इन सब अत्याचारों को देखा करते, पर अपने शांति सागर में घोर उपद्रव मच जाने से भय से किसी से कुछ न कहते, तथापि इस पिछले अन्याय ने उनकी महती सहन-शक्ति को भी मथ डाला। एक दिन उन्होंने गोदावरी से डरते-डरते कहा– क्या आज-कल जलपान के लिए मिठाई-विठाई नहीं आती?

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