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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806
आईएसबीएन :9781613015438

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


बहुत यत्न किए गए पर विपिन का मुंह सीधा न हुआ। मुख्य का बायां भाग इतना टेढ़ा हो गया था कि चेहरा देखकर डर मालूम होता था। हां, पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि अब वह चलने-फिरने लगे।

आशा ने पति की बीमारी में देवी की मनौती की थी। आज उसी की पूजा का उत्सव था। मुहल्ले की स्त्रियां बनाव-सिंगार किये जमा थीं। गाना-बजाना हो रहा था।

एक सहेली ने पूछा- क्यों आशा, अब तो तुम्हें उनका मुंह जरा भी अच्छा न लगता होगा।

आशा ने गम्भीर होकर कहा- मुझे तो पहले से कहीं मुंह जरा भी अच्छा न लगता होगा।

‘चलों, बातें बनाती हो।’

‘नहीं बहन, सच कहती हुं; रूप के बदले मुझे उनकी आत्मा मिल गई जो रूप से कहीं बढ़कर है।’

विपिन कमरे में बैठे हुए थे। कई मित्र जमा थे। ताश हो रहा था।

कमरे में एक खिड़की थी जो आंगन में खुलती थी। इस वक्त वह बन्द थी। एक मित्र ने उसे चुपके से खोल दिया और शीशे से झांक कर विपिन से कहा- आज तो तुम्हारे यहां परियों का अच्छा जमघट है।

विपिन- बन्द कर दो।

‘अजी जरा देखो तो: कैसी−कैसी सूरतें है! तुम्हें इन सबों में कौन सबसे अच्छी मालूम होती है?

विपिन ने उड़ती हुई नजरों से देखकर कहा- मुझे तो वही सबसे अच्छी मालूम होती है जो थाल में फूल रख रही है।

‘वाह री आपकी निगाह! क्या सूरत के साथ तुम्हारी निगाह भी बिगड़ गई? मुझे तो वह सबसे बदसूरत मालूम होती है।’

‘इसलिए कि तुम उसकी सूरत देखते हो और मैं उसकी आत्मा देखता हूं।’

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