कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
और महाशयजी के पास सम्भाषण का केवल एक ही विषय है, जिससे वह कभी नहीं थकते और वह है उस स्वर्गवासिनी का गुणगान। कोई मेहमान आ जाय, आप बावले-से इधर-उधर दौड़ रहे हैं, कुछ नहीं सूझता, कैसे उसकी खातिर करें। क्षमा-याचना के लिए शब्द ढूँढ़ते फिरते हैं 'भाईजान, मैं आपकी क्या खातिर करूँ, जो आपकी सच्ची खातिर करता, वह नहीं रहा। इस वक्त तक आपके सामने चाय और टोस्ट और बादाम का हलवा आ जाता। सन्तरे और सेब छिले-छिलाये तश्तरियों में रख दिये जाते। मैं तो निरा उल्लू हूँ, भाईसाहब, बिलकुल काठ का उल्लू। मुझमें जो कुछ अच्छा था, वह सब उनका प्रसाद था। उसी की बुद्धि से मैं बुद्धिमान् था, उसी की सज्जनता से सज्जन, उसी की उदारता से उदार। अब तो निरा मिट्टी का पुतला हूँ भाई साहब, बिलकुल मुर्दा। मैं उस देवी के योग्य न था। न-जाने किन शुभ-कर्मों के फल से वह मुझे मिली थी। आइए, आपको उसकी तसवीर दिखाऊँ। मालूम होता है, अभी-अभी उठकर चली गयी है। भाई साहब, आपसे साफ कहता हूँ, मैंने ऐसी सुन्दरी कभी नहीं देखी। उसके रूप में केवल रूप की गरिमा ही न थी, रूप का माधुर्य भी था और मादकता भी, एक-एक अंग साँचे में ढला था। साहब! आप उसे देखकर कवियों के नख-सिख को लात मारते।'
आप उत्सुक नेत्रों से वह तसवीर देखते हैं। आपको उसमें कोई विशेष सौन्दर्य नहीं मिलता। स्थूल शरीर है, चौड़ा-सा मुँह, छोटी-छोटी आँखें, रंग-ढंग से दहकानीपन झलक रहा है। उस तसवीर की खूबियाँ कुछ इस अनुराग और इस आडम्बर से बयान किये जाते हैं कि आपको सचमुच इस चित्र में सौन्दर्य का आभास होने लगता है। इस गुणानुवाद में कितना समय जाता है, वही महाशयजी के जीवन के आनन्द की घड़ियाँ हैं। इतनी ही देर वह जीवित रहते हैं। शेष जीवन निरानन्द है, निस्पन्द है। पहले कुछ दिनों तक तो वह हमारे साथ हवा खाने जाते रहे वह क्या जाते रहे, मैं जबरदस्ती ठेल-ठालकर ले जाता रहा, लेकिन रोज आधे घण्टे तक उनका इन्तजार करना पड़ता था। किसी तरह घर से निकलते भी तो जनवासे वाली चाल से चलते और आधा मील में ही हिम्मत हार जाते और लौट चलने का तकाजा करने लगते। आखिर मैंने उन्हें साथ ले जाना छोड़ दिया। और तबसे उनकी चहलकदमी चालीस कदम की रह गयी है। सैर क्या है बेगार है और वह भी इसलिए कि देवीजी के सामने उनका यह नियम था।
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