कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
दो-चार कदम चलकर मैंने पूछा, 'सच बताओ, भाईजान! गिल्टी-विल्टी तो नहीं लगवा ली?'
उन्होंने प्रश्न की आँखों से देखा, 'क़ैसी गिल्टी? मैं नहीं समझा।'
'मुझे सन्देह हो रहा है कि तुमने बन्दर की गिल्टियाँ लगवा ली हैं।'
'अरे यार, क्यों कोसते हो? गिल्टियाँ किसलिए लगवाता? मुझे तो इसका कभी खयाल भी नहीं आया।'
'तो क्या कोई बिजली का यन्त्र मँगवा लिया है?'
'तुम आज मेरे पीछे क्यों हाथ धोकर पड़े हो? विधवा भी तो कभी सिंगार कर लेती है? जी ही तो है! एक दिन मुझे अपने आलस्य और बेदिली पर खेद हुआ। मैंने सोचा, जब संसार में रहना है, तो जिंदों की तरह क्यों न रहूँ। मुर्दों की तरह जीने से क्या फायदा। बस और न कोई बात है, न रहस्य।'
मुझे इस व्याख्या से सन्तोष न हुआ। दूसरे दिन जरा और सबेरे आकर मुंशीजी के द्वार पर आवाज दी; लेकिन आप आज भी निकल चुके थे। मैं उनके पीछे भागा। जिद पड़ गयी कि इसे अकेले न जाने दूँगा। देखूँ, कब तक मुझसे भागता है। कोई रहस्य है अवश्य। अच्छा बचा, आधी रात को आकर बिस्तर से न उठाऊँ तो सही। दौड़ तो न सका; लेकिन जितना तेज चल सकता था, चला। एक मील के बाद आप नजर आये। बगटुट भागे चले जा रहे थे। अब मैं बार-बार पुकार रहा हूँ- 'हजरत, जरा ठहर जाइए, मेरी साँस फूल रही है; मगर आप हैं कि सुनते ही नहीं। आखिर जब मैंने अपने सिर की कसम दिलायी, तब जाकर आप रुके। मैं झपाटे से पहुँचा, तो तिनककर बोले 'मैंने तुमसे कह दिया था, मेरे घर मत आना, फिर क्यों आये और क्यों मेरे पीछे पड़े? मुझे आप धीरे-धीरे घूमने दो। तुम अपना रास्ता लो।'
मैंने उनका हाथ पकड़कर जोर से झटका दिया और बोला, 'देखो, होरीलाल, मुझसे उड़ो नहीं, वरना मुझे जानते हो, कितना बेमुरौवत आदमी हूँ। तुम यह धीरे-धीरे टहल रहे हो या डबल मार्च कर रहे हो! मेरी पिंडलियों में दर्द होने लगा और पसलियाँ दुख रही हैं। डाक का हरकारा भी तो इस चाल से नहीं दौड़ता। उस पर गजब यह कि तुम थके नहीं हो, अब भी उसी दम-खम के साथ चले जा रहे हो। अब तो तुम डण्डे लेकर भगाओ, तो भी तुम्हारा दामन न छोडूँ। तुम्हारे साथ दो मील भी चलूँगा, तो अच्छी-खासी कसरत हो जायगी, मगर अब साफ-साफ बतलाओ, बात क्या है? तुममें यह जवानी कहाँ से आ गयी? अगर किसी अकसीर का सेवन कर रहे हो, तो मुझे भी दो। कम-से-कम उसे मँगाने का पता बता दो, मैं मँगवा लूँगा; अगर किसी दुआ-ताबीज की करामात है, तो मुझे भी उस पीर के पास ले चलो।'
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