कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
'और जब से उनका देहान्त हुआ, यह दुनिया से मुँह मोड़ बैठे?'
'इससे भी अधिक! उसकी स्मृति के सिवा जीवन में उनके लिए कोई रस ही न रहा।'
'वह रूपवती थी?'
'इनकी दृष्टि में तो उससे बढ़कर रूपवती संसार में न थी।'
उसने एक मिनट तक किसी विचार में मग्न रहकर कहा, 'अच्छा आप जायँ। मैं उनके साथ बात करूँगी। ऐसे देवता पुरुष की मुझसे जो सेवा हो सकती है, उसमें क्यों देर करूँ? मैं तो इनका वृत्तान्त सुनकर सम्मोहित हो गयी हूँ।'
मैं अपना-सा मुँह लेकर घर चला आया। इत्तफाक से उसी दिन मुझे एक जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा। वहाँ से एक महीने में लौटा। और सबसे पहला काम जो मैंने किया, वह महाशय होरीलाल का क्षेम-कुशल पूछना था। इस बीच में क्या-क्या नयी बातें हो गयीं यह जानने के लिए अधीर हो रहा था। दिल्ली से इन्हें एक पत्र लिखा था; पर इन हजरत में यह बुरी आदत है कि पत्रों का जवाब नहीं देते। सुन्दरी से इनका अब क्या संबंध है, आमदरफ्त जारी है, या बन्द हो गयी, उसने इनके पत्नी-व्रत का क्या पुरस्कार दिया, या देनेवाली है? इस तरह के प्रश्न दिल में उबल रहे थे। मैं महाशयजी के घर पहुँचा, तो आठ बज रहे थे। खिड़कियों के पट बन्द थे। सामने बरामदे में कूड़े-करकट का ढेर था। ठीक वही दशा थी, जो पहले नजर आती थी। चिन्ता और बढ़ी। ऊपर गया तो देखा, आप उसी फर्श पर पड़े हुए जहाँ दुनिया-भर की चीजें बेढंगेपन से अस्त-व्यस्त पड़ी हुई हैं एक पत्रिका के पन्ने उलट रहे हैं। शायद एक सप्ताह से बाल नहीं बने थे। चेहरे पर जर्दी छायी थी।
मैंने पूछा, आप सैर करके लौट आये क्या? सिटपिटाकर बोले अजी, 'सैर-सपाटे की कहाँ फुर्सत है भई, और फुर्सत भी हो, तो वह दिल कहाँ है! तुम तो कहीं बाहर गये थे?'
'हाँ, जरा देहली तक गया था। अब सुन्दरी से आपकी मुलाकात नहीं होती?'
'इधर तो बहुत दिनों से नहीं हुई।'
'कहीं चली गयी क्या?'
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