कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 46 प्रेमचन्द की कहानियाँ 46प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग
मगर तीन दिन में ही मेरे धीरज का प्याला छलक उठा औ इन तीन दिनों में भी दिल की जो हालत थी वह बयान से बाहर है। शीरीं, यानी मीठे गुड़, की कोठरी की तरफ से बार-बार गुजरता और अधीर नेत्रों से देखता और हाथ मलकर रह जाता। कई बार ताले को खटखटाया, खींचा, झटके दिये, मगर जालिम जरा भी न हुमसा। कई बार जाकर उस संधि की जांच -पडताल की, उसमें झांककर देखा, एक लकड़ी से उसकी गहराई का अन्दाजा लगाने की कोशिश की मगर उसकी तह न मिली। तबियत खोई हुई-सी रहती, न खाने-पीने में कुछ मजा था, न खेलने-कूदने में। वासना बार-बार युक्तियों के जारे खाने-पीने में कुछ मजा था, न खेलने-कूदने में। वासना बार-बार युक्तियों के जोर से दिल को कायल करने की कोशिश करती। आखिर गुड़ और किस मर्ज की दवा है। मैं उसे फेंक तो देता नहीं, खाता ही तो हूँ, क्या आज खाया और क्या एक महीने बाद खाया, इसमें क्या फर्क है। अम्मां ने मनाही की है बेशक लेकिन उन्हें मुझे एक उचित काम से अलग रखने का क्या हक है? अगर वह आज कहें खेलने मत जाओ या पेंड़ पर मत चढ़ो या तालाब में तैरने मत जाओ, या चिड़ियों के लिए कम्पा मत लगाओ, तितलियां मत पकड़ो, तो क्या में माने लेता हूँ? आखिर चौथे दिन वासना की जीत हुई।
मैंने तड़के उठकर एक कुदाल लेकर दीवार खोदना शुरू किया। संधि थी ही, खोदने में ज्यादा देर न लगी, आध घण्टे के घनघोर परिश्रम के बाद दीवार से कोई गज-भर लम्बा और तीन इंच मोटा चप्पड़ टूटकर नीचे गिर पड़ा और संधि की तह में वह सफलता की कुंजी पड़ी हुई थी, जैसे समुन्दर की तह में मोती की सीप पड़ी हो। मैंने झटपट उसे निकाला और फौरन दरवाजा खोला, मटके से गुड़ निकालकर हांड़ी में भरा और दरवाजा बन्द कर दिया। मटके में इस लूट-पाट से स्पष्ट कमी पैदा हो गयी थी। हजार तरकीबें आजमाने पर भी इसका गढ़ा न भरा। मगर अबकी बार मैंने चटोरेपन का अम्मां की वापसी तक खात्मा कर देने के लिए कुंजी को कुएं में डाल दिया।
किस्सा लम्बा है, मैंने कैसे ताला तोड़ा, कैसे गुड़ निकाला और मटका खाली हो जाने पर कैसे फोड़ा और उसके टुकड़े रात को कुंए में फेंके और अम्मां आयीं तो मैंने कैसे रो-रोकर उनसे मटके के चोरी जाने की कहानी कही, यह बयान करने लगा तो यह घटना जो मैं आज लिखने बैठा हूँ अधूरी रह जाएगी।
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