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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807
आईएसबीएन :9781613015445

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


‘तो भाई, अनजान आदमी को यहां नहीं ठहरने देंगे। इसी तरह कल एक मुसाफिर आकर ठहरा था, रात को एक घर में सेंध पड़ गयी, सुबह को मुसाफ़िर का पता न था।’

‘तो क्या तुम समझते हो, मैं चोर हूँ?’

‘किसी के माथे पर तो लिखा नहीं होता, अन्दर का हाल कौन जाने!’

‘नहीं ठहराना चाहते न सही, मगर चोर तो न बनाओ। मैं जानता यह इतना मनहूस गांव है तो इधर आता ही क्यों?’

मैंने ज्यादा खुशामद न की, जी जल गया। सड़क पर आकर फिर आगे चल पड़ा। इस वक्त मेरे होश ठिकाने न थे। कुछ खबर नहीं किस रास्ते से गांव में आया था और किधर चला जा रहा था। अब मुझे अपने घर पहुँचने की उम्मीद न थी। रात यों ही भटकते हुए गुजरेगी, फिर इसका क्या गम कि कहां जा रहा हूँ। मालूम नहीं कितनी देर तक मेरे दिमाग की यह हालत रही।

अचानक एक खेत में आग जलती हुई दिखाई पड़ी कि जैसे आशा का दीपक हो। जरूर वहां कोई आदमी होगा। शायद रात काटने को जगह मिल जाए। कदम तेज किये और करीब पहुँचा कि यकायक एक बड़ा-सा कुत्ता भूँकता हुआ मेरी तरफ दौड़ा। इतनी डरावनी आवाज थी कि मैं कांप उठा। एक पल में वह मेरे सामने आ गया और मेरी तरफ लपक-लपककर भूँकने लगा। मेरे हाथों में किताबों की पोटली के सिवा और क्या था, न कोई लकड़ी थी न पत्थर, कैसे भगाऊँ, कहीं बदमाश मेरी टांग पकड़ ले तो क्या करूँ! अंग्रेजी नस्ल का शिकारी कुत्ता मालूम होता था। मैं जितना ही धत्-धत् करता था उतना ही वह गरजता था। मैं खामोश खड़ा हो गया और पोटली जमीन पर रखकर पांव से जूते निकाल लिये, अपनी हिफ़ाजत के लिए कोई हथियार तो हाथ में हो! उसकी तरफ गौर सें देख रहा था कि खतरनाक हद तक मेरे करीब आये तो उसके सिर पर इतने जोर से नालदार जूता मार दूं कि याद ही तो करे लेकिन शायद उसने मेरी नियत ताड़ ली और इस तरह मेरी तरफ झपटा कि मैं कांप गया और जूते हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़े। और उसी वक्त मैंने डरी हुई आवाज में पुकारा- अरे खेत में कोई है, देखो यह कुत्ता मुझे काट रहा है! ओ महतो, देखो तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा है।

जवाब मिला- कौन है?

‘मैं हूँ, राहगीर, तुम्हारा कुत्ता मुझे काट रहा है।’

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