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कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
रजनी का अन्धकार
क्रमश: सघन हो रहा था। नारी बारम्बार अँगड़ाई लेती हुई सो गयी। तब भी
आलिंगन के लिए उसके हाथ नींद में उठते और गिरते थे।
जब नक्षत्रों
की रश्मियाँ उज्ज्वल होने लगीं, और वे पुष्ट होकर पृथ्वी पर परस्पर चुम्बन
करने लगीं, तब जैसे अन्तरिक्ष में बैठकर किसी ने अपने हाथों से उनकी
डोरियाँ बट दीं और उस पर झूलती हुई दो देवकुमारियाँ उतरी।
एक ने
कहा—”सखि विधाता, तुम बड़ी निष्ठुर हो। मैं जिन प्राणियों की सृष्टि करती
हूँ, तुम उनके लिए अलग-अलग विधान बनाकर उसी के अनुसार कुछ दिनों तक जीने,
अपने संकेत पर चलने और फिर मर जाने के लिए विवश कर देती हो।”
दूसरी
ने कहा— ”धाता, तुम भी बड़ी पगली हो। यदि समस्त प्राणियों की व्यवस्था
एक-सी ही की जाती, तो तुम्हारी सृष्टि कैसी नीरस होती और फिर यह तुम्हारी
क्रीड़ा कैसे चलती? देखो न, आज की ही रात है। गंधमादन में देव-बालाओं का
नृत्य और असुरों के देश में राज्य-विप्लव हो रहा है। अतलान्त समुद्र सूख
रहा है। महामरुस्थल में जल की धाराएँ बहने लगी हैं, और आर्यावर्त के
दक्षिण विन्ध्य के अञ्चल में एक हिरन न पाने पर एक युवा नर अपनी प्रेयसी
नारी को छोड़कर चला जाता है। उसे है भूख, केवल भूख।”
धाता ने कहा— ”हाँ बहन,
इन्हें उत्पन्न हुए बहुत दिन हो चुके; पर ये अभी
तक अपने सहचारी पशुओं की तरह रहते हैं।”
विधाता
ने कहा— ”नहीं जी, आज ही मैंने इस वर्ग के एक प्राणी के मन में ललित कोमल
आन्दोलन का आरम्भ किया है। इनके हृदय में अब भावलोक की सृष्टि होगी।”
धाता ने प्रसन्न होकर
पूछा— ”तो अब इनकी जड़ता छूटेगी न?”
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