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कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
पथिक, जिसे अब हम पथिक न
कहेंगे,
ग्वालियर-दुर्ग का किलेदार था, मुगल सम्राट अकबर के सरदारों में से था।
बिछे हुए पारसी कालीन पर मसनद के सहारे वह बैठ गया। दोनों दासियाँ फिर एक
हुक्का ले आईं और उसे रखकर मसनद के पीछे खड़ी होकर चँवर करने लगीं। एक ने
रामप्रसाद की ओर बहुत बचाकर देखा।
युवक सरदार ने थोड़ी-सी
वारुणी
ली। दो-चार गिलौरी पान की खाकर फिर वह हुक्का खींचने लगा। रामप्रसाद क्या
करे; बैठे-बैठे सरदार का मुँह देख रहा था। सरदार के ईरानी चेहरे पर वारुणी
ने वार्निश का काम किया। उसका चेहरा चमक उठा। उत्साह से भरकर उसने
कहा-रामप्रसाद, कुछ-कुछ गाओ। यह उस दासी की ओर देख रहा था।
रामप्रसाद,
सरदार के साथ बहुत मिल गया। उसे अब कहीं भी रोक-टोक नहीं है। उसी पाईं-बाग
में उसके रहने की जगह है। अपनी खिचड़ी आँच पर चढ़ाकर प्राय: चबूतरे पर आकर
गुनगुनाया करता। ऐसा करने की उसे मनाही नहीं थी। सरदार भी कभी-कभी खड़े
होकर बड़े प्रेम से उसे सुनते थे। किन्तु उस गुनगुनाहट ने एक बड़ा बेढब
कार्य किया। वह यह कि सरदार-महल की एक नवीना दासी, उस गुनगुनाहट की धुन
में, कभी-कभी पान में चूना रखना भूल जाया करती थी, और कभी-कभी मालकिन के
'किताब' माँगने पर 'आफ़ताबा' ले जाकर बड़ी लज्जित होती थी। पर तो भी
बरामदे में से उसे एक बार उस चबूतरे की ओर देखना ही पड़ता था।
रामप्रसाद
को कुछ नहीं - वह जंगली जीव था। उसे इस छोटे-से उद्यान में रहना पसन्द
नहीं था, पर क्या करे। उसने भी एक कौतुक सोच रक्खा था। जब उसके स्वर में
मुग्ध होकर कोई अपने कार्य में च्युत हो जाता, तब उसे बड़ा आनन्द मिलता।
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