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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
    बेला
      का एकान्त में विरह-निवेदन उसकी भाव-प्रवणता को और भी उत्तेजित करता था।
      पलाश का जंगल उसकी कातर कुहुक से गूँज रहा था। सहसा उस निस्तब्धता को भंग
      करते हुए घोड़े पर सवार ठाकुर साहब वहाँ आ पहुँचे। 
    
    “अरे बेला! तू यहाँ क्या
      कर रही है?” 
    
    बेला
      की स्वर-लहरी रुक गयी थी। उसने देखा ठाकुर साहब! महत्व का सम्पूर्ण चित्र,
      कई बार जिसे उसने अपने मन की असंयत कल्पना में दुर्गम शैल-शृंग समझकर अपने
      भ्रम पर अपनी हँसी उड़ा चुकी थी। वह सकुच कर खड़ी हो रही। बोली नहीं, मन
      में सोच रही थी- ”गोली को छोड़कर भूरे के साथ रहना क्या उचित है? और नहीं
      तो फिर....” 
    
    ठाकुर ने कहा- ”तो
      तुम्हारे साथ कोई नहीं है। कोई जानवर निकल आवे, तो?” 
    
    बेला खिलखिला कर हँस
      पड़ी। ठाकुर का प्रमाद बढ़ चला था। घोड़े से झुककर
      उसका कन्धा पकड़ते हुए कहा, “चलो, तुमको पहुँचा दें।” 
    
    उसका शरीर काँप रहा था,
      और ठाकुर आवेश में भर रहे थे। उन्होंने कहा-
      ”बेला, मेरे यहाँ चलोगी?” 
    
    “भूरे
      मेरा पति है!” बेला के इस कथन में भयानक व्यंग था। वह भूरे से छुटकारा
      पाने के लिए तरस रही थी। उसने धीरे से अपना सिर ठाकुर की जाँघ से सटा
      दिया। एक क्षण के लिए दोनों चुप थे। फिर उसी समय अन्धकार में दो मूर्तियों
      का प्रादुर्भाव हुआ। कठोर कण्ठ से भूरे ने पुकारा- ”बेला!” 
    
    ठाकुर
      सावधान हो गये थे। उनका हाथ बगल की तलवार की मूठ पर जा पड़ा। भूरे ने कहा-
      ”जंगल में किसलिए तू आती थी, यह मुझे आज मालूम हुआ। चल, तेरा खून पिये
      बिना न छोड़ूँगा।” 
    			
		  			
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