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			 कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
    हाँ
      तो - नन्दन ने पुकारा - रोहिणी, एक लोटा जल ले आ बेटी, ये तो अपने मालिक
      हैं, इनसे लज्जा कैसी? रोहिणी आई। वह उसके यौवन का प्रभात था, परिश्रम
      करने से उसकी एक-एक नस और मांस-पेशियाँ जैसे गढ़ी हुई हों। मैंने देखा,
      उसकी झुकी हुई पलकों से काली बरौनियाँ छितरा रही थीं और उन बरौनियों से
      जैसे करुणा की अदृश्य सरस्वती कितनी ही धाराओं में बह रही थी। मैं न जाने
      क्यों उद्विग्न हो उठा। अधिक काल तक वहाँ न ठहर सका। घर चला आया। 
    
    विजया का त्यौहार था। घर
      में गाना-बजाना हो रहा था। मैं अपनी श्रीमती के
      पास जा बैठा। उन्होंने कहा-सुनते हो? 
    
    मैंने कहा- दोनों कानों
      से। 
    
    श्रीमती
      ने कहा- यह रोहिणी बहुत अच्छा गाने लगी, और भी एक आश्चर्य की बात है; यह
      गीत बनाती भी है, गाती भी है। तुम्हारे गाँव की लड़कियाँ तो बड़ी गुनवती
      हैं। मैं ‘हूँ’ कहकर उठकर बाहर आने लगा; देखा तो रोहिणी जवारा लिये खड़ी
      है। मैंने सिर झुका दिया, यव की पतली-पतली लम्बी धानी पत्तियाँ मेरे कानों
      से अटका दी गई, मैं उसे बिना कुछ दिये बाहर चला आया। 
    
    पीछे से सुना कि इस
      धृष्टता पर मेरी माता जी ने उसे बहुत फटकारा; उसी दिन
      से कोट में उसका आना बन्द हुआ। 
    
    नन्दन
      बड़ा दु:खी हुआ। उसने भी आना बन्द कर दिया। एक दिन मैंने सुना, उसी की
      सहेलियाँ उससे मेरे सम्बन्ध में हँसी कर रही थीं। वह सहसा अत्यन्त
      उत्तेजित हो उठी और बोली- तो इसमें तुम लोगों का क्या? मैं मरती हूँ,
      प्यार करती हूँ उन्हें, तो तुम्हारी बला से। 
    			
		  			
						
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