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जयशंकर प्रसाद की कहानियां

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :435
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9810
आईएसबीएन :9781613016114

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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ


अरुन्धती- भगवन्! आज कैसी स्वच्छ राका है!

वशिष्ठ- जैसा तुम्हारा चरित्र।

अरुन्धती- चन्द्रोदय कैसा उज्ज्वल है?

वशिष्ठ- जैसे विश्वामित्र का तप-पुंज।

अरुन्धती- भगवन्! उसने तो आपके पुत्रों को मार डाला था?

वशिष्ठ- चन्द्र क्या निष्कलंक है.......

अभी भगवान् वशिष्ठजी के वचन पूर्ण भी नहीं हुए थे कि सहसा दौड़ता हुआ एक मनुष्य आकर उनके चरणों पर गिर पड़ा, और कहने लगा- ”भगवन्! आप ही इस संसार में ‘ब्रह्मर्षि’ कहलाने के योग्य हैं, लोग मुझे वृथा ही महर्षि कहते हैं। मैं तो आपको मारने के वास्ते व्याध की नाईं छिपा हुआ था, आपकी अमृत-वाणी से मेरे हृदय का अन्धकार दूर हुआ। आज ज्ञात हुआ कि, ब्राह्मण होने के हेतु कितनी सहनशीलता चाहिए! प्रभो! मैं घोर भ्रम में था, मैंने कितने पाप-कर्म आपको नीचा दिखाने के हेतु किए, और ब्रह्मर्षि बनने के हेतु कितनी हिंसा की, आज पर्याप्त हुआ। आज मैंने सब पाया। प्रभो, इस पापी को क्या आप क्षमा कीजिएगा?

वशिष्ठजी ने पुलकित होकर विश्वामित्र को प्रियमित्र बनाया, और पुन: कण्ठ से लगाकर सुधा-प्लाविता वाणी से कहा- ”ब्रह्मर्षि, शान्त होवो। परम शिव तुम्हें क्षमा करेंगे।”

दोनों ब्रह्मर्षियों का महासम्मेलन गंगा-जमुना के समान पवित्र-पुण्यमय था, ब्राह्मण और क्षत्रियों के हेतु वह एक चिरस्मरणीय शर्वरी थी।

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