कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
विधाता ने कहा— ”हाँ,
बहुत धीरे-धीरे। मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए
अभी इनके पास साधनों का अभाव है।”
धाता
कुछ रूठ-सी गयी। उसने कहा— ”चलो बहन, देवनृत्य देखें। मुझे तुम्हारी
कठोरता के कारण अपनी ही सृष्टि अच्छी नहीं लगती। कभी-कभी तो ऊब जाती हूँ।”
विधाता ने कहा— ”तो
चुपचाप बैठ जाओ, अपना काम बन्द कर दो, मेरी भी जलन
छूटे।”
धाता ने खिन्न होकर कहा—
”अभ्यास क्या एक दिन में छूट जायगा, बहन?”
“तब
क्या तुम्हारी सृष्टि एक दिन में स्वर्ग बन जायगी? चलो, सुर-बालाओं का
सोमपान हो रहा है। एक-एक चषक हम लोग भी लें।”— कहकर विधाता ने किरनों की
रस्सी पकड़ ली और धाता ने भी! दोनों पेंग बढ़ाने लगीं। ऊँचे जाते-जाते
अन्तरिक्ष में वे छिप गयीं।
नारी जैसे सपना देखकर उठ
बैठी।
प्रभात हो रहा था। उसकी आँखों में मधुर स्वप्न की मस्ती भरी थी। नदी का जल
धीरे-धीरे बह रहा था। पूर्व में लाली छिटक रही थी। मलयवात से बिखरे हुए
केशपाश को युवती ने पीछे हटाया। हिरनों का झुण्ड फिर दिखाई पड़ा। उसका
हृदय सम्वेदनशील हो रहा था। उस दृश्य को नि:स्पृह देखने लगी।
ऊषा
के मधुर प्रकाश में हिरनों का दल छलाँग भरता हुआ स्रोत लाँघ गया; किन्तु
एक शावक चकित-सा वहीं खड़ा रह गया। पीछे आखेट करनेवालों का दल आ रहा था।
युवती ने शावक को गोद में उठा लिया। दल के और लोग तो स्रोत के संकीर्ण तट
की ओर दौड़े; किन्तु वह परिचित युवक युवती के पास चला आया। नारी ने उसे
देखने के लिए मुँह फिराया था कि शावक की बड़ी-बड़ी आँखों में उसे अपना
प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा। क्षण-भर के लिए तन्मय होकर उन निरीह नयनों में
नारी अपनी छाया देखने लगी।
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