कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
कुनाल- महारानी
तिष्यरक्षिता को छिपकर मुझे देखने की क्या आवश्यकता है?
तिष्यरक्षिता- (कुछ
कम्पित स्वर से) तुम्हारे सौन्दर्य से विवश होकर।
कुनाल- (विस्मित तथा
भयभीत होकर) पुत्र का सौन्दर्य तो माता ही का दिया
हुआ है।
तिष्यरक्षिता- नहीं
कुनाल, मैं तुम्हारी प्रेम-भिखारिनी हूँ, राजरानी नहीं
हूँ; और न तुम्हारी माता हूँ।
कुनाल-
(कुंज से बाहर निकलकर) माताजी, मेरा प्रणाम ग्रहण कीजिए, और अपने इस पाप
का शीघ्र प्रायश्चित कीजिये। जहाँ तक सम्भव होगा, अब आप इस पाप-मुख को कभी
न देखेंगी।
इतना कहकर शीघ्रता से वह
युवक राजकुमार कुनाल, अपनी
विमाता की बात सोचता हुआ, उपवन के बाहर निकल गया। पर तिष्यरक्षिता
किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वहीं तब तक खड़ी रहीं, जब तक किसी दासी के
भूषण-शब्द ने उसकी मोह-निद्रा को भंग नहीं किया।
श्रीनगर के
समीपवर्ती कानन में एक कुटीर के द्वार पर कुनाल बैठा हुआ ध्यानमग्न है।
उसकी सुशील पत्नी उसी कुटीर में कुछ भोजन बना रही है।
कुटीर स्वच्छ तथा उसकी
भूमि परिष्कृत है। शान्ति की प्रबलता के कारण पवन
भी उसी समय धीरे-धीरे चल रहा है।
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