कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
क्षमा करो बलराज, मैं
तुम्हारा तर्क नहीं समझ सकी।
मेरी स्वामिनी का रथ दूर चला गया होगा, तो मुझे बातें सुननी पड़ेंगीं
क्योंकि आज-कल मेरे स्वामी नगर से दूर स्वास्थ्य के लिए उपवन में रहते
हैं। स्वामिनी देव-दर्शन के लिए आई थीं।
तब मेरा इतना परिश्रम
व्यर्थ हुआ! फिरोज़ा ने व्यर्थ ही आशा दी थी। मैं
इतने दिनों भटकता फिरा। इरावती! मुझ पर दया करो।
फिरोज़ा
कौन?- फिर सहसा रुककर इरावती ने कहा- क्या करूँ! यदि मैं वैसा करती, तो
मुझे इस जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता मिलती; किन्तु वह मेरे भाग्य में है
कि नहीं, इसे भगवान् ही जानते होंगे? मुझे अब जाने दो। - बलराज इस उत्तर
से खिन्न और चकराया हुआ काठ के किवाड़ की तरह इरावती के सामने से अलग होकर
मन्दिर के प्राचीर से लग गया। इरावती चली गई। बलराज कुछ समय तक स्तब्ध और
शून्य-सा वहीं खड़ा रहा। फिर सहसा जिस ओर इरावती गई थी, उसी ओर चल पड़ा।
युवक
बलराज कई दिन तक पागलों-सा धनदत्त के उपवन से नगर तक चक्कर लगाता रहा।
भूख-प्यास भूलकर वह इरावती को एक बार फिर देखने के लिए विकल था; किन्तु वह
सफल न हो सका। आज उसने निश्चय किया था कि वह काशी छोड़कर चला जायगा। वह
जीवन से हताश होकर काशी से प्रतिष्ठान जानेवाले पथ पर चलने लगा। उसकी
पहाड़ के ढोके-सी काया, जिसमें असुर-सा बल होने का लोग अनुमान करते,
निर्जीव-सी हो रही थी। अनाहार से उसका मुख विवर्ण था। यह सोच रहा था-उस
दिन, विश्वनाथ के मन्दिर में न जाकर मैंने आत्महत्या क्यों न कर ली! वह
अपनी उधेड़-बुन में चल रहा था। न जाने कब तक चलता रहा। वह चौंक उठा-जब
किसी के डाँटने का शब्द सुनाई पड़ा-देख कर नहीं चलता! बलराज ने चौंककर
देखा, अश्वारोहियों की लम्बी पंक्ति, जिसमें अधिकतर अपने घोड़ों को पकड़े
हुए पैदल ही चल रहे थे। वे सब तुर्क थे। घोड़ों के व्यापारी-से जान पड़ते
थे।
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