कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
ठहरो, इरा! तुमने मन को
कड़वा बनाकर मेरी बात सुनी है। उतनी ही तेजी से
उसे बाहर कर देना चाहती हो।
मेरे
दुखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है, उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती,
फिरोज़ा। मैं तो देखूँगी कि वह मेरे दु:ख को कितना कम कर सका है। मुझे
दु:ख सहने के लिए जो छोड़ जाता है, केवल अपने अभिमान और आकांक्षा की
तुष्टि के लिए। मेरे दु:ख में हाथ बटाने का जिसका साहस नहीं, जो मेरी
परिस्थिति में साथी नहीं बन सकता, जो पहले अमीर बनना चाहता है, फिर अपने
प्रेम का दान करना चाहता है, वह मुझसे हृदय माँगे, इससे बढ़ कर धृष्टता और
क्या होगी?
मैं तुम्हारी बहुत-सी
बातें समझ नहीं सकी, लेकिन मैं इतना तो कहूँगी कि
दु:खों ने तुम्हारे जीवन की कोमलता छीन ली है।
फिरोज़ा....मैं
तुमसे बहस नहीं करना चाहती। तुमने मेरा प्राण बचाया है सही, किन्तु हृदय
नहीं बचा सकती। उसे अपनी खोज-खबर आप ही लेनी पड़ेगी। तुम चाहे जो मुझे कह
लो। मैं तो समझती हूँ कि मनुष्य दूसरों की दृष्टि में कभी पूर्ण नहीं हो
सकता! पर उसे अपनी आँखों से तो नहीं ही गिरना चाहिए।
फिरोज़ा ने
सन्देह से पीछे की ओर देखा। बलराज वृक्ष की आड़ से निकल आया। उसने कहा-
फिरोज़ा, मै जब गजनी के किनारे मरना चाहता था, तो क्या भूल कर रहा था?
अच्छा, जाता हूँ।
इरावती सोच रही थी, अब भी
कुछ बोलूँ-
फिरोज़ा सोच रही थी,
दोनों को मरने से बचा कर क्या सचमुच मैंने कोई बुरा
काम किया?
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