कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
शंकर- यहाँ तक! अच्छा,
झगड़ा किस बात का है?
नारद-
यही कि देवसेना-पति होने से कुमार अपने को बड़ा समझते हैं, और (जननी की ओर
देखकर) बुद्धिमान होने से गणेश अपने को बड़ा समझते हैं।
जननी- हाँ-हाँ, ठीक ही तो
है, गणेश बड़ा बुद्धिमान है।
शंकर
ने देखा कि यह तो यहाँ भी कलह उत्पन्न किया चाहता है, इसलिए वे बोले-वत्स!
तुम इसमें अपने पिता को ही पञ्च मानो, कारण कि जिसको हम बड़ा कहेंगे,
दूसरा समझेगा कि पिता ने हमारा अनादर किया है-अस्तु, तुम शीघ्र ही इसका
आयोजन करके दोनों को शान्त करो।
नारद ने देखा कि, यहाँ
दाल नहीं ग़लती, तो जगत्पिता के चरण-रज लेकर बिदा
हुए।
नारद
अपने पिता ब्रह्मा के पास पहुँचे। उन्होंने सब हाल सुनकर कहा- वत्स! तुझे
क्या पड़ी रहती है, जो तू लड़ाई-झगड़ों में अग्रगामी बना रहता है, और
व्यर्थ अपवाद सुनता है?
नारद- पिता! आप तो केवल
संसार को बनाना
जानते हैं, यह नहीं जानते कि संसार में कार्य किस प्रकार से चलता है। यदि
दो-चार को लड़ाओ न, और उनका निबटारा न करो, तो फिर कौन पूछता है? देखिए,
इसी से देव-समाज में नारद-नारद हो रहा है, और किसी भी अपने पुत्र की आपने
देव-समाज में इतनी चर्चा सुनी है?
ब्रह्मा- तो क्या तुझे
प्रसिद्धि का यही मार्ग मिला है?
नारद- मुझे तो इसमें सुख
मिलता है-
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