कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
दिवाकर
की पहली किरण ने जब चमेली की कलियों को चटकाया, तब उन डालियों को उतना
नहीं ज्ञात हुआ, जितना कि एक युवक के शरीर-स्पर्श से उन्हें हिलना पड़ा,
जो कि काँटे और झाड़ियों का कुछ भी ध्यान न करके सीधा अपने मार्ग का
अनुसरण कर रहा है। वह युवक फिर उसी खिडक़ी के सामने पहुँचा और जाकर अपने
पूर्व-परिचित शिलाखंड पर बैठ गया, और पुन: वही क्रिया आरम्भ हुई।
धीरे-धीरे एक सैनिक पुरुष ने आकर उस युवक के कंधे पर अपना हाथ रक्खा।
युवक चौंक उठा और क्रोधित
होकर बोला- तुम कौन हो?
आगन्तुक
हँस पड़ा और बोला- यही तो मेरा भी प्रश्न है कि तुम कौन हो? और क्यों इस
अन्त:पुर की खिडक़ी के सामने बैठे हो? और तुम्हारा क्या अभिप्राय है?
युवक-
मैं यहाँ घूमता हूँ, और यही मेरा मकान है। मैं जो यहाँ बैठा हूँ, मित्र!
वह बात यह है कि मेरा एक मित्र इसी प्रकोष्ठ में रहता है; मैं कभी-कभी
उसका दर्शन पा जाता हूँ, और अपने चित्त को प्रसन्न करता हूँ।
सैनिक-
पर मित्र! तुम नहीं जानते कि यह राजकीय अन्त:पुर है। तुम्हें ऐसे देखकर
तुम्हारी क्या दशा हो सकती है? और महाराजा तुम्हें क्या समझेंगे?
युवक-
जो कुछ हो; मेरा कुछ असत् अभिप्राय नहीं है, मैं तो केवल सुन्दर रूप का
दर्शन ही निरन्तर चाहता हूँ, और यदि महाराज भी पूछें तो यही कहूँगा।
सैनिक- तुम जिसे देखते
हो, वह स्वयं राजकुमारी है, और तुम्हें कभी नहीं
चाहती। अतएव तुम्हारा यह प्रयास व्यर्थ है।
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