कहानी संग्रह >> जयशंकर प्रसाद की कहानियां जयशंकर प्रसाद की कहानियांजयशंकर प्रसाद
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जयशंकर प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ
उस
समय सिंहद्वार के सामने की विस्तृत भूमि निर्जन हो रही थी। केवल जलती हुई
धूप उस पर किलोल कर रही थी। बाज़ार बन्द था। राधे ने देखा, दो-चार कौए
काँव-काँव करते हुए सामने नारियल-कुँज की हरियाली में घुस रहे थे। उसे
अपना ताड़ीखाना स्मरण हो आया। उसने अण्डों को बटोर लिया।
बुढिय़ा
‘हाँ, हाँ’ करती ही रह गयी, वह चला गया। दुकानवाली ने अँगूठे और तर्जनी से
दोनों आँखों का कीचड़ साफ़ किया, और फिर मिट्टी के पात्र से जल लेकर मुँह
धोया।
बहुत सोच-विचार कर अधिक
उतरा हुआ एक केला उसने छीलकर अपनी
अञ्जलि में रख उसे मन्दिर की ओर नैवेद्य लगाने के लिए बढ़ाकर आँख बन्द कर
लीं। भगवान् ने उस अछूत का नैवेद्य ग्रहण किया या नहीं, कौन जाने; किन्तु
बुढिय़ा ने उसे प्रसाद समझकर ही ग्रहण किया।
अपनी दुकान झोली में
समेटे हुए, जिस कुँज में कौए घुसे थे, उसी में वह भी घुसी। पुआल से छायी
हुई टट्टरों की झोपड़ी में विश्राम लिया।
उसकी स्थावर सम्पत्ति
में वही नारियल का कुञ्ज, चार पेड़ पपीते और छोटी-सी पोखरी के किनारे पर
के कुछ केले के वृक्ष थे। उसकी पोखरी में एक छोटा-सा झुण्ड बत्तखों का भी
था, जो अण्डे देकर बुढिय़ा के आय में वृद्धि करता। राधे अत्यन्त मद्यप था।
उसकी स्त्री ने उसे बहुत दिन हुए छोड़ दिया था।
बुढिय़ा को भगवान् का
भरोसा था, उसी देव-मन्दिर के भगवान् का, जिसमें वह
कभी नहीं जाने पायी थी!
अभी वह विश्राम की झपकी
ही लेती थी कि महन्तजी के जमादार कुँज ने कड़े
स्वर में पुकारा-”राधे, अरे रधवा, बोलता क्यों नहीं रे!”
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